हिंसा आतंकवाद, सांप्रदायिक तनाव और डिजिटल युग की विषाक्त बहसों के रूप में वैश्विक स्तर पर फैल रही है

By :  Newshand
Update: 2025-09-30 12:25 GMT

गांधी का ग्राम स्वराज और आज की राजनीति

गांधीवाद आज: जब मूल्यों की गति बदल रही है

आज का युग तकनीकी उन्नति, वैश्वीकरण और जटिल सामाजिक-राजनीतिक गतिशीलता का दौर है, जहां हर क्षेत्र में परिवर्तन की तीव्र गति दिखाई देती है। ऐसे में महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi)और उनके दर्शन, गांधीवाद की प्रासंगिकता पर सवाल उठना स्वाभाविक है। क्या अहिंसा, सत्य, स्वदेशी और सर्वोदय जैसे सिद्धांत आज की सत्ता-केंद्रित राजनीति और उपभोक्तावादी संस्कृति में प्रासंगिक हैं? गांधी का जीवन और विचार आज भी हमें प्रेरित करते हैं, लेकिन आधुनिक संदर्भों में उनकी व्याख्या और अनुप्रयोग की राह आसान नहीं है। फिर भी, उनके विचार मानवता, नैतिकता और सामाजिक न्याय की ऐसी नींव प्रदान करते हैं, जो समय की कसौटी पर खरी उतरती है।

गांधी का दर्शन केवल स्वतंत्रता संग्राम तक सीमित नहीं था; यह एक समग्र जीवन पद्धति थी, जो मानवीय मूल्यों और सामाजिक समानता पर टिकी थी। उनकी अहिंसा का सिद्धांत न केवल ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक शक्तिशाली हथियार था, बल्कि छुआछूत, जातिगत भेदभाव और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ भी प्रभावी रहा। आज, जब हिंसा आतंकवाद, सांप्रदायिक तनाव और डिजिटल युग की विषाक्त बहसों के रूप में वैश्विक स्तर पर फैल रही है(Violence is spreading globally in the form of terrorism, communal tensions and toxic debates of the digital age.), गांधी की अहिंसा एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। यह केवल शारीरिक हिंसा से परहेज नहीं, बल्कि मन, वचन और कर्म में शुद्धता का आह्वान करती है। सोशल मीडिया पर बढ़ते ध्रुवीकरण और आक्रामकता के दौर में, गांधी का संयम और सहानुभूति पर आधारित यह सिद्धांत न केवल प्रासंगिक है, बल्कि अत्यंत आवश्यक भी है। यह हमें त्वरित प्रतिक्रियाओं के बजाय गहन चिंतन और संवाद की राह दिखाता है।




गांधी का स्वदेशी का सिद्धांत आज के पर्यावरणीय संकट और जलवायु परिवर्तन के दौर में नई प्रासंगिकता ग्रहण करता है। स्वदेशी केवल विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार नहीं, बल्कि स्थानीय संसाधनों का सम्मान, आत्मनिर्भरता और टिकाऊ जीवनशैली का प्रतीक था। आज, जब उपभोक्तावाद और संसाधनों का अंधाधुंध दोहन पर्यावरण को नष्ट कर रहा है, गांधी की सादगी और न्यूनतम संसाधन उपयोग की वकालत एक प्रभावी समाधान बन सकती है। भारत में 'आत्मनिर्भर भारत' और 'मेक इन इंडिया' जैसी पहलें, भले ही आंशिक रूप से, गांधी के स्वदेशी सिद्धांत से प्रेरित हैं, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था और छोटे उद्यमों को बढ़ावा देती हैं। हालांकि, वैश्विक व्यापार और बड़े पैमाने पर उत्पादन पर आधारित आधुनिक अर्थव्यवस्था में स्वदेशी को पूरी तरह लागू करना चुनौतीपूर्ण है। फिर भी, गांधी का यह विचार हमें पर्यावरणीय जिम्मेदारी और टिकाऊ विकास की दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करता है।

आज के युग में, जब आर्थिक असमानता, सत्ता का दुरुपयोग और पर्यावरणीय संकट वैश्विक चुनौतियां बन चुके हैं, गांधी का सर्वोदय सिद्धांत—सभी के कल्याण का दर्शन—एक प्रेरक मार्गदर्शक बन सकता है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत में धन का असमान वितरण तेजी से बढ़ रहा है। गांधी का मानना था कि समाज का सच्चा विकास तभी संभव है, जब उसका सबसे कमजोर तबका सशक्त हो। यह विचार आज के सामाजिक न्याय और समावेशी विकास के लक्ष्यों के साथ गहराई से जुड़ता है। फिर भी, सरकारी नीतियां और योजनाएं अक्सर तात्कालिक लाभ और वोट बैंक की राजनीति के जाल में फंसकर गांधीवादी दृष्टिकोण से भटक जाती हैं। यदि नीति-निर्माता सर्वोदय को अपनाएं, तो यह असमानता के खिलाफ एक प्रभावी उपाय हो सकता है, जो समाज के हर वर्ग को सशक्त बनाने की दिशा में काम करेगा।



गांधी की राजनीतिक दृष्टि—सत्ता को जनसेवा का साधन मानने की सोच—आज की भ्रष्टाचार और नैतिक पतन से ग्रस्त राजनीति में एक कठिन लेकिन आवश्यक आदर्श प्रस्तुत करती है। उनका ग्राम स्वराज का सपना, जो स्थानीय भागीदारी और आत्मनिर्भरता पर आधारित था, पंचायती राज में आंशिक रूप से दिखता है, पर केंद्रीकृत शासन और नौकरशाही की जटिलताएं इसे पूरी तरह लागू होने से रोकती हैं। गांधी का सत्याग्रह—नैतिक और अहिंसक प्रतिरोध—आज के हिंसक और राजनीति से प्रेरित आंदोलनों के बीच दुर्लभ है। फिर भी, 'चिपको आंदोलन' जैसे पर्यावरणीय अभियानों या सामाजिक न्याय के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में गांधीवादी तत्वों की झलक मिलती है, जो उनके विचारों की जीवंतता को दर्शाती है।



गांधी के विचारों की ताकत उनकी सार्वभौमिकता और लचीलेपन में निहित है। उनकी 'नई तालीम' की अवधारणा, जो शिक्षा को आत्मनिर्भरता और नैतिकता से जोड़ती थी, आज की डिग्री-केंद्रित और कौशल-प्रधान शिक्षा प्रणाली के लिए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण पेश करती है। यह शिक्षा को केवल रोजगार का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी और व्यक्तिगत विकास का आधार बनाती है। हालांकि, गांधीवादी तरीकों की धीमी गति और धैर्य की मांग आधुनिक समाज की त्वरित परिणामों की चाहत के सामने चुनौती बनती है।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि गांधी के नाम का तो खूब उपयोग होता है—उनकी जयंती पर मूर्तियों को माला पहनाई जाती है—पर उनके सिद्धांतों को व्यवहार में लाने की इच्छाशक्ति कमजोर दिखती है। फिर भी, पर्यावरण कार्यकर्ता, सामाजिक सुधारक और शांति के पैरोकार आज भी गांधी से प्रेरणा लेते हैं। चाहे वह डिजिटल युग की विषाक्तता के खिलाफ अहिंसा हो, पर्यावरण संरक्षण और स्थानीय अर्थव्यवस्था के लिए स्वदेशी हो, या सामाजिक समानता के लिए सर्वोदय—गांधी के विचारों को आधुनिक संदर्भों में ढालकर लागू किया जा सकता है।

गांधी का सबसे शक्तिशाली संदेश था—परिवर्तन की शुरुआत स्वयं से करनी होती है। यदि आज का समाज और राजनीति इस संदेश को आत्मसात कर ले, तो गांधीवाद न केवल प्रासंगिक रहेगा, बल्कि एक न्यायपूर्ण, टिकाऊ और समावेशी विश्व की नींव बन सकता है। उनके विचार हमें याद दिलाते हैं कि सच्चा बदलाव धीमा हो सकता है, लेकिन उसका प्रभाव गहरा और स्थायी होता है।

प्रो. आरके जैन “अरिजीत

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