रानी लक्ष्मीबाई की जयंती

By :  Newshand
Update: 2025-11-18 02:06 GMT

रानी लक्ष्मीबाई: वो नाम जो कभी झुका नहीं

लक्ष्मीबाई—जहाँ मातृत्व और पराक्रम एक ही रूप में दिखते हैं

रानी लक्ष्मीबाई (Rani of Jhansi)की जयंती सिर्फ एक तिथि का स्मरण नहीं, बल्कि उस अदम्य साहस की पुनः स्थापना है जिसने अंग्रेजी साम्राज्य की नींव तक हिला दी थी। भारत के इतिहास में बहुत कम ऐसे क्षण आए हैं जब एक व्यक्तित्व ने अपने अस्तित्व मात्र से अन्याय के विरुद्ध एक पूरे युग को प्रेरित किया हो। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की जयंती ऐसा ही एक अवसर है—जहाँ हम उस निडर स्त्री को याद करते हैं जिसने मात्र तेईस–चौबीस वर्षों की उम्र में वह कर दिखाया जो विशाल युद्धक सेनाएँ भी कभी-कभी नहीं कर पातीं। यह दिन हमें उस लौह-इच्छाशक्ति, स्वाभिमान, कर्तव्यनिष्ठा और देशप्रेम की अनोखी मिसाल से दोबारा जोड़ देता है, जिसके कारण लक्ष्मीबाई इतिहास में नहीं, बल्कि भारत के दिल में बसती हैं।

1828 में वाराणसी की पवित्र माटी में जन्मी मणिकर्णिका, या मनु, बचपन से ही एक तूफान थी। जहाँ उस दौर की बालिकाएँ गुड़ियों के खेल में मस्त रहती थीं, वहीं मनु घोड़े की लगाम थामे, तलवार लिए युद्धकला सीख रही थी। उनकी आँखों में सपने नहीं, बल्कि एक मंजिल थी—खुद को हर बंधन से आज़ाद रखने की। उनके पिता, मोरोपंत तांबे, ने उनकी इस आग को हवा दी, और मनु ने इसे एक ज्वाला बना दिया। झाँसी के राजा गंगाधर राव से विवाह के बाद वह रानी बनीं, लेकिन उनका मन कभी राजमहल की चकाचौंध में नहीं रमा। वह एक ऐसी शासक थीं, जिनके लिए प्रजा का सुख और सम्मान सर्वोपरि था। उनके दरबार में हर वर्ग को न्याय मिलता था, और यही वजह थी कि झाँसी की जनता उनके लिए सिर्फ रानी नहीं, बल्कि माँ थी।



Photo Sourced from Wikimedia

 

जब अंग्रेजों ने ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ के बहाने झाँसी को हड़पने की चाल चली, तब रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmi Bai Jayanti)ने वह जवाब दिया, जो आज भी इतिहास के पन्नों में चमकता है—“मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।” यह महज शब्द नहीं थे; यह एक युद्ध का शंखनाद था, जो 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नींव बना। रानी ने न केवल अपने किले को बचाने की ठानी, बल्कि एक ऐसी सेना खड़ी की, जिसमें साहस ही एकमात्र हथियार था। उनकी सेना में सिर्फ पुरुष ही नहीं, बल्कि झलकारी बाई जैसी वीरांगनाएँ भी थीं, जो रानी के एक इशारे पर जान देने को तैयार थीं। युद्ध के मैदान में, जब रानी अपने गोद लिए बेटे दामोदर को पीठ पर बाँधकर घोड़े पर सवार होती थीं, तब वह सिर्फ एक योद्धा नहीं, बल्कि मातृत्व और देशभक्ति का अनुपम संगम थीं। उनकी तलवार की चमक ने अंग्रेजों को कई रातों तक नींद नहीं सोने दी।

रानी लक्ष्मीबाई (Queen Rani Lakshmibai)की रणनीति और नेतृत्व का लोहा अंग्रेज भी मानते थे। जब झाँसी का किला चारों ओर से घिर गया, तब भी उन्होंने हार नहीं मानी। रात के अंधेरे में, अपने विश्वस्त साथियों के साथ, वह किले से निकलीं और कालपी की ओर बढ़ीं। वहाँ से ग्वालियर तक का उनका सफर सिर्फ एक यात्रा नहीं, बल्कि स्वतंत्रता के लिए एक अंतहीन संघर्ष था। ग्वालियर के युद्ध में, 18 जून 1858 को, जब वह शहीद हुईं, तब उनकी उम्र महज 29 साल थी। लेकिन उस छोटी-सी जिंदगी में उन्होंने वह कर दिखाया, जो सदियों तक गूंजेगा। माना जाता है कि अपनी आखिरी साँस तक उन्होंने तलवार नहीं छोड़ी, और उनके शहीद होने के बाद भी अंग्रेजों के चेहरों पर खौफ बरकरार था।

रानी की जयंती हमें उनके युद्धकौशल से कहीं अधिक उनकी विचारों की अथाह गहराई को आत्मसात करने का अवसर देती है। वे महज एक योद्धा नहीं थीं, बल्कि एक दूरदर्शी शासक थीं, जिन्होंने झाँसी को समृद्धि और सुरक्षा का स्वर्णिम कवच पहनाने के लिए रात-दिन एक कर दिए। उनके शासन में व्यापार फला, कृषि फूली, और कला ने नया आकाश छुआ। उन्होंने अपने लोगों को एकता के सूत्र में बाँधा और उनके हृदय में यह अटल विश्वास जगाया कि स्वतंत्रता उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। उनकी जयंती हमें यह गहन सबक देती है कि सच्ची देशभक्ति केवल रणभूमि की हुंकार में नहीं, बल्कि कर्तव्य के प्रति अटूट निष्ठा और समाज के उत्थान में भी प्रज्वलित होती है।

आज, जब हम आधुनिक भारत की चोटियों को छू रहे हैं, रानी लक्ष्मीबाई की जयंती हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखती है। यह पवित्र दिवस हमें गूँजकर पुकारता है कि स्वतंत्रता का मूल्य अनमोल है, और इसे अक्षुण्ण रखने के लिए हर क्षण सजगता और बलिदान की आग जलानी होगी। उनकी गाथा हमें सिखाती है कि चुनौतियाँ कितनी भी विशाल हों, यदि हृदय में अटल संकल्प की ज्वाला धधक रही हो, तो कोई भी लक्ष्य असाध्य नहीं। रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी एक जीवंत ग्रंथ है, जो हर पीढ़ी को साहस, स्वाभिमान और समर्पण का अमर संदेश देता है, प्रेरित करता है कि हम न केवल अपनी विरासत को संजोएँ, बल्कि उसे और गौरवशाली बनाने के लिए संघर्ष करें।

रानी लक्ष्मीबाई की जयंती पर, हमें सिर्फ उनकी वीरता को सलाम नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके सपनों को जीना चाहिए। वह सपना, जिसमें हर भारतीय अपने हक के लिए खड़ा हो, अपने देश के लिए जिए, और कभी भी अन्याय के सामने न झुके। उनकी जयंती वह आग है, जो हमें बताती है कि हमारी रगों में वही खून दौड़ता है, जो कभी झाँसी की रानी की रगों में दौड़ा था। आइए, इस दिन को सिर्फ याद न करें, बल्कि इसे एक संकल्प बनाएँ—रानी के जैसे निर्भीक, निष्ठावान और नन्हा सा योगदान देने वाले बनने का। क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि भारत की वह आत्मा हैं, जो कभी हार नहीं मानती।

प्रो. आरके जैन “अरिजीत

Tags:    

Similar News