बिहार के पूरे चुनाव का अपहरण

By :  Newshand
Update: 2025-11-19 02:08 GMT

चौंकाने से ज्यादा चिंतित करते हैं बिहार चुनाव के नतीजे



आलेख : बादल सरोज

14 नवम्बर को घोषित हुए बिहार विधानसभा चुनाव(Bihar Assembly Elections) के नतीजे सचमुच अप्रत्याशित हैं । संसदीय लोकतंत्र में अनुमान के जितने भी पैमाने हैं, उनमें से कोई भी इस तरह के परिणाम का संकेत तक नहीं दे रहा था । एक तरफ बीस साल से लगातार जारी नितीश सरकार के खाते में असफलताओं का जखीरा था, गिनाने के लिए कोई भी उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं थी, एनडीए गठबंधन(NDA Alliance) में भी कसमसाहट थी, रोड शोज से लेकर पोस्टर्स तक में एक दूजे को अनदेखा करने से लेकर धकियाने तक के नज़ारे सार्वजनिक थे, मोदी और अमित शाह तक की सभाओं में भरी से ज्यादा खाली कुर्सियां दिखाई दे रही थीं। चुनाव के बीच दिन-दहाड़े हुई राजनीतिक हत्या ने कथित जंगल राज की कलई उतार दी थी। दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्ष दलों और वाम के महागठबंधन की एकता लगभग मुकम्मल थी। उसके पास ऐसा वैकल्पिक घोषणापत्र भी था, जो बिहार के भविष्य का इंतजाम करता था। उसकी सभाओं में अपने आप आने वाली हजारों की भीड़ का उत्साह और उल्लास मुखर था। मगर चुनाव परिणाम इससे ठीक उलट आये और नितीश-भाजपा वाले एनडीए ने एक ऐसी जीत दर्ज कर ली, जिसकी दूर दूर तक कोई आशंका नहीं थी।

इन परिणामों ने सिर्फ देश के धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील अवाम या महागठबंधन में शामिल राजनीतिक धाराओं से जुड़े व्यक्तियों को ही नहीं, तटस्थ राजनीतिक समीक्षकों और गैर-गोदी मीडिया और पत्रकारों को भी हैरत में डाल दिया है। गहराई से समीक्षा जारी है, आने वाले दिनों में सीटवार विश्लेषण भी सामने आ जायेंगे। मगर असल में बिहार विधानसभा के चुनाव नतीजे चौंकाने से ज्यादा चिंतित करने वाले हैं। और यह चिंता सरकार किसकी बनी की नहीं है, उससे आगे की है और यह है कि यदि बिहार का अपवाद नियम बन गया, तो फिर संसदीय लोकतंत्र कितना बचेगा और कब तक रहेगा, यह भी कि संवैधानिक संस्थाओं और उनमे बैठे व्यक्तियों का आचरण इतना गिरता गया, तो फिर संविधान कितना और कब तक सलामत रहेगा।






बिहार के पूरे चुनाव का अपहरण करने की पटकथा देश के चुनाव आयोग के गठन की प्रक्रिया में से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को हटाने और तीन सदस्यों में सरकार के दो लोग रखे जाने का प्रावधान करके पहले ही लिखी जा चुकी थी । बाकी कसर निर्वाचन आयुक्तों को किसी भी तरह अवैधानिकता के लिए किसी भी कानूनी कार्यवाही से अभयदान का जो अधिकार राष्ट्रपति तक को नहीं है, वह क़ानून बनाकर उसे पूरी कर दी गयी। इस तरह पालतू बनाए गए चुनाव आयोग ने वही किया, जो उससे कहा गया : एसआईआर के नाम से कुख्यात मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण इसका पहला उदाहरण है। जिस हड़बड़ाहट और जल्दबाजी में उसे किया गया, उससे ही एसआईआर के पीछे जो इरादा था, स्पष्ट हो गया था। जिस बिहार में वर्ष 2020 के विधानसभा चुनावों में एनडीए और महागठबंधन के बीच महज 15 सीटों का और सिर्फ 11150 वोटो का अंतर रहा हो, जिस बिहार की काफी बड़ी आबादी रोजगार के लिए पलायन करने को अभिशप्त हो, जहां पिछड़ापन और गरीबी बेहिसाब हो, वहां एसआईआर की शर्तों को पूरा न कर पाने वाली आबादी का सामाजिक प्रोफाइल क्या होगा, इसे समझने के लिए किसी विशेषज्ञता की जरूरत नहीं हैं। इसके साथ एसआईआर में धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति पूर्वाग्रह भी शुरू से स्पष्ट था। इसमें कितनी और किस-किस तरह की गड़बड़ियां हुई, यह हर रोज वैकल्पिक मीडिया देश को दिखाता रहा। मगर ‘मोदी मेहरबान तो ज्ञानेश कुमार पहलवान’ ने बिना किसी की परवाह किये मतदाता सूची से 65 लाख 64 हजार 075 लोगों के नाम हटा दिए। जो आशंकाएं थीं, इन नतीजों ने उसे सही साबित कर दिया है। पिछले चुनाव में दोनों गठबन्धनों के बीच का 11150 वोटों का अंतर इस चुनाव में बढ़कर करीब 44 लाख हो गया। थोड़ा और गहराई से देखें, तो 174 सीटों पर जीत का अंतर एसआईआर के दौरान हटाए गए मतदाता सूची के नामों की संख्या से कम है। पिछली बार महागठबंधन द्वारा जीती जिन सीटों को इस बार एनडीए ने “छीना” है, उसमें 75 सीटों पर जीत का अंतर, सूची से हटाये गए मतदाताओं की संख्या से कम, काफी कम है।





बिना विपक्षी दलों को भरोसे में लिए, बिना उनके साथ संवाद किये, की गयी एसआईआर और मतदाताओं की चुनिंदा छंटाई भारत के निर्वाचन आयोग का एकमात्र कारनामा नहीं है। चुनाव के लिए निर्धारित प्रक्रिया और सभी दलों के लिए समान अवसर दिलाने का ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसकी ज्ञानेश कुमार की अगुआई वाले चुनाव आयोग ने धज्जियां न उड़ाई हों। आजादी के बाद से ही यह नियम बना हुआ है कि चुनाव की तारीखों की घोषणा होने के साथ ही आचार संहिता लागू हो जायेगी और उसके बाद मतदाताओं को किसी भी तरह का प्रलोभन देने वाली घोषणायें तक करना दंडनीय अपराध होगा। मगर बिहार में हर महिला के खाते में 10-10 हजार रूपये डालने की न केवल घोषणा की गयी, बल्कि चुनावों के बीच, मतदान के पहले चरण तक हर शुक्रवार को इसका ट्रान्सफर किया जाता रहा : चुनाव आयोग चुप बैठा रहा। यह सीधे-सीधे वोट के लिए नोट देने का मामला था : करीब 1 करोड़ 30 लाख महिलाओं के बैंक खातों में कोई 14 हजार करोड़ रूपये भेजे गए। इसके अलावा भी नकदी बांटे जाने के अनेक मामले विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं ने रंगे हाथों पकड़े और पकड़वाये, लेकिन प्रशासन से लेकर निर्वाचन आयोग तक मूकदर्शक बनकर यह सब होते हुए देखता भर नहीं रहा, अक्सर मामलों में यह सब कराने में मददगार बना रहा। जीविका दीदी जैसी संस्थाओं को एनडीए के चुनाव प्रचारकों में बदल कर रख दिया गया।





नियम कहते हैं कि चुनाव प्रचार के थमने के बाद कोई भी गैर-मतदाता बाहरी व्यक्ति संबंधित चुनाव क्षेत्र में नहीं रह सकता : मगर पूरे बिहार के सारे होटल्स गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश से आये हजारों भाजपा कार्यकर्ताओं से भरे रहे। इनके द्वारा मतदान तक में भाग लिए जाने और कई-कई वोट्स डालने की ख़बरें, उनकी तस्वीरों सहित सामने आई हैं। भाजपा शासित राज्यों के लगभग सारे मंत्री, विधायक और सांसद तक इस काम में झोंक दिए गए। इधर दिल्ली में बम धमाका हो रहा था और उधर देश का गृह मंत्री सारे सीसीटीवी कैमरा बंद करवाके बिहार के होटल में बैठ कर चुनाव मैनेज करने और आला प्रशासनिक अधिकारों की गुप्त बैठकें कर उन्हे ‘काम सौंप’ रहा था।

साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण भी तेजी से किया गया। जिन्हें गलतफहमी थी कि नितीश कुमार के होने की वजह से हिन्दू-मुसलमान का जाप ज्यादा नहीं किया जाएगा, उनका मुगालता दूर करते हुए यूपी के योगी और मोदी के मंत्री गिरिराज सिंह ने ही जहर नहीं उगला, स्वयं अमित शाह और मोदी भी इस आख्यान को हवा देते रहे। रही-सही कसर उस ओवैसी के भाषणों से पूरी करवा दी, जो प्रतिद्वंद्वी साम्प्रदायिकता फैलाकर भाजपा की बी टीम के रूप में हमेशा उसकी मदद करते रहे है।





ये नतीजे इसलिए चिंताजनक है, क्योंकि भारत ही नहीं, दुनिया भर की चुनाव प्रणाली में चुनाव को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के जितने भी प्रावधान और इंतजाम हैं, उन सबको ध्वस्त किया गया है। संवैधानिक दायरे में काम करने की बजाय आँख मूंदकर सत्ता का हुकुम बजाने वाली नौकरशाही पहले ही तैनात की जा चुकी थी, न्यायपालिका को कहाँ पहुंचाया जा चुका है, यह सब जानते हैं, अब चुनाव आयोग को भी अस्तबल में पहुंचाकर लोकतंत्र को खूंटे से बांधा जा रहा है।

ये नतीजे इसलिए भी चिन्ताजनक हैं कि चुनाव के मौके पर नकदी देकर मतदाताओं का नागरिकता-बोध छीनकर उनमे याचक और प्रजा भाव पैदा किया जा रहा है । चिंता इसलिए भी है कि दरिद्र और वंचितों को खुद अपनी अर्थी को कंधा देने के लिए तैयार किया जा रहा है।



जो हुआ वह अचानक नहीं हुआ है। संघ-नियंत्रित भाजपा ने कभी नहीं कहा कि वे स्वच्छ चुनाव लड़ेंगे। उनके हिसाब से, उनकी राजनीति में कल्पनीय-अकल्पनीय, सम्भव-असम्भव, नैतिक-अनैतिक, संवैधानिक असंवैधानिक, हर तरह के कर्म-अपकर्म-कुकर्म, सारे नाजायज जायज है। हर जगह धांधली करेंगे, यह तो दुनिया भर को पता था। उनका रोल मॉडल चाइना टाउन के जगीरा भाई साहब हैं ; संसदीय लोकतंत्र के रीति-रिवाज नहीं।

सवाल यह है कि इन हालात में किया क्या जाए? सबसे पहले तो जनता को कोसना बंद किया जाना चाहिए। उसके बाद शॉर्ट कट तलाशने की आदत बदलनी चाहिए। चुनाव के समय गठबंधन ही विजय की गारंटी नहीं है। चुनाव के वक़्त जगना ही पर्याप्त नहीं होता। साझे और स्वतंत्र दोनों तरह से लगातार संघर्ष, वास्तविक और आभासी हर मुद्दे पर नतीजा निकलने तक संघर्ष, लड़ाई में जुड़े अवाम के दिमाग में बसे भ्रम-विभ्रम और धारणाओं के जाले साफ़ करने का काम भी साथ-साथ करते हुए गाँव-बस्ती तक ढांचा खड़ा करने का संघर्ष रास्ता हमवार करता है। इसी तरह के संघर्षों से लोकतंत्र हासिल हुआ था, इन्हीं को तेज करके लोकतंत्र बचेगा।

(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)

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