गुरु हर किशन सिंह जी का चमत्कारी जीवन
07 जुलाई: सिखों के आठवें गुरु, गुरु हर किशन सिंह की जयंती
मुट्ठीभर वर्षों में अनंत प्रकाश: गुरु हर किशन सिंह जी का चमत्कारी जीवन
गुरु हर किशन सिंह जी: इतिहास की सबसे शांत लेकिन सबसे ऊँची आवाज़
सिख इतिहास की स्वर्णिम गाथा में कुछ नाम ऐसे हैं जो चिरस्थायी प्रेरणा के प्रतीक बन गए हैं। इनमें से एक है सिखों के आठवें गुरु, गुरु हर किशन सिंह जी(Guru Har Krishan Sahib Ji), जिनका जीवन मात्र आठ वर्ष का रहा, परंतु उनकी शिक्षाएं, करुणा और साहस आज भी लाखों लोगों के लिए मार्गदर्शक हैं। 7 जुलाई 1656 को कीरतपुर साहिब में जन्मे गुरु हर किशन जी सातवें गुरु, गुरु हर राय जी और माता कृष्णा कौर के सुपुत्र थे। उनकी जीवन गाथा केवल एक धार्मिक कथा नहीं, बल्कि मानवता, सेवा और सत्य के प्रति अटूट निष्ठा का जीवंत उदाहरण है। पाँच वर्ष की आयु में गुरु गद्दी पर आसीन होने वाले इस बाल गुरु ने सिख धर्म के इतिहास में एक अनूठा स्थान बनाया, जिसकी चमक आज भी उतनी ही प्रखर है।
गुरु हर किशन जी का जन्म उस समय हुआ जब सिख पंथ एक ओर आध्यात्मिक ऊँचाइयों को छू रहा था, तो दूसरी ओर मुग़ल शासन की क्रूरता और धार्मिक दमन का सामना कर रहा था। उनके पिता, गुरु हर राय जी, ने सिखों को न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और नैतिक दृष्टि से भी सशक्त बनाने का कार्य किया था। इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए गुरु हर किशन जी ने अपने छोटे से जीवन में जो प्रभाव छोड़ा, वह किसी चमत्कार से कम नहीं था। उनकी बाल्यावस्था में ही उनकी आध्यात्मिक परिपक्वता और करुणा ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। जब गुरु हर राय जी ने उन्हें गुरु गद्दी सौंपने का निर्णय लिया, तो यह केवल एक पिता का अपने पुत्र के प्रति स्नेह नहीं था, बल्कि यह उनकी दिव्यता, सहज बुद्धि और सेवा भाव के प्रति विश्वास था। यह निर्णय सिख समुदाय के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था, क्योंकि इतनी कम उम्र में किसी को गुरु गद्दी सौंपना अपने आप में एक असाधारण कदम था।
1661 में, जब गुरु हर किशन जी मात्र पाँच वर्ष के थे, उन्हें गुरु की गद्दी सौंपी गई। यह वह दौर था जब मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का शासन अपने चरम पर था। औरंगज़ेब, जो सिख धर्म के बढ़ते प्रभाव से चिंतित था, ने गुरु हर किशन जी को दिल्ली बुलवाया। उसका उद्देश्य सिख पंथ को कमज़ोर करना और गुरु तेग बहादुर जी के प्रभाव को सीमित करना था। लेकिन गुरु हर किशन जी ने अपनी बुद्धिमत्ता और आध्यात्मिक शक्ति से औरंगज़ेब की इस चाल को नाकाम कर दिया। उन्होंने दिल्ली पहुँचकर भी बादशाह के दरबार में उपस्थित होने से इनकार कर दिया। इसके बजाय, उन्होंने अपना समय दिल्ली की जनता की सेवा में समर्पित कर दिया। यह घटना न केवल उनकी दृढ़ता को दर्शाती है, बल्कि यह भी सिद्ध करती है कि सच्चा गुरु सत्ता के सामने कभी नहीं झुकता।
दिल्ली में उस समय चेचक की महामारी ने भयंकर रूप ले लिया था। लोग असहाय थे, और मृत्यु का भय हर ओर फैला हुआ था। ऐसे कठिन समय में गुरु हर किशन जी ने जो किया, वह उनकी महानता का सबसे बड़ा प्रमाण है। उन्होंने जाति, धर्म और सामाजिक भेदभाव से ऊपर उठकर रोगियों की सेवा शुरू की। एक आठ वर्षीय बालक, जिसके कंधों पर गुरु गद्दी का दायित्व था, वह रोगियों के बीच जाकर उन्हें पानी पिलाता, उनकी देखभाल करता और उनकी पीड़ा को कम करने का प्रयास करता था। उनकी करुणा इतनी गहन थी कि लोग कहते थे कि उनके स्पर्श और “बोले सो निहाल” के उद्घोष से रोगियों को राहत मिलती थी। यह सेवा केवल शारीरिक उपचार तक सीमित नहीं थी; यह एक आध्यात्मिक संदेश था कि मानवता ही सच्चा धर्म है। गुरु हर किशन जी का यह सेवा भाव उनकी शिक्षाओं का मूल था। उन्होंने कभी लंबे प्रवचन नहीं दिए, न ही जटिल दार्शनिक उपदेश। उनकी शिक्षाएं उनके कार्यों में थीं। उनकी सौम्य मुस्कान, करुणा भरी निगाहें और सेवा के प्रति समर्पण ही उनका संदेश था। उन्होंने सिखाया कि सच्चा धर्म वह है जो दूसरों के दुख को अपना समझे और उनकी सेवा में स्वयं को समर्पित कर दे। यह उनके जीवन का वह पहलू है जो आज भी हमें प्रेरित करता है।
दुर्भाग्यवश, दूसरों की सेवा में स्वयं को समर्पित करते हुए गुरु हर किशन जी स्वयं चेचक की चपेट में आ गए। उनकी छोटी आयु और कमज़ोर शरीर इस बीमारी का सामना नहीं कर सका। फिर भी, अंतिम क्षणों में भी उन्होंने धैर्य और शांति का परिचय दिया। 30 मार्च 1664 को, मात्र आठ वर्ष की आयु में, उन्होंने दिल्ली में अपनी अंतिम साँस ली। उनकी मृत्यु केवल एक जीवन का अंत नहीं थी; यह एक बलिदान था, जो सिख धर्म के मूल्यों – सत्य, सेवा और त्याग – को अमर कर गया। उनके अंतिम शब्दों में भी उनकी दूरदर्शिता झलकती थी, जब उन्होंने गुरु गद्दी को गुरु तेग बहादुर जी को सौंपने का निर्देश दिया। गुरु हर किशन जी का जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व आयु, अनुभव या शारीरिक शक्ति से नहीं, बल्कि आत्मिक शक्ति, करुणा और सत्य के प्रति निष्ठा से परिभाषित होता है। उन्होंने यह दिखाया कि सबसे कठिन परिस्थितियों में भी मानवता और धर्म के प्रति समर्पण को बनाए रखा जा सकता है। उनकी कहानी केवल सिखों के लिए ही नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा है जो सत्य और सेवा के मार्ग पर चलना चाहता है।
आज दिल्ली का बंगला साहिब गुरुद्वारा गुरु हर किशन जी की स्मृति का जीवंत प्रतीक है। यह स्थान न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि सेवा और करुणा का एक ऐसा तीर्थ है, जहाँ लाखों लोग उनकी शिक्षाओं से प्रेरणा लेते हैं। गुरुद्वारे का सरोवर, जहाँ गुरु जी ने रोगियों को जल पिलाया था, आज भी उनकी करुणा की कहानी कहता है। यहाँ आने वाला हर श्रद्धालु उनके जीवन से प्रेरित होकर यह संकल्प लेता है कि वह अपने जीवन में सेवा और सत्य को सर्वोपरि रखेगा। गुरु हर किशन जी का जीवन एक ऐसी ज्योति है जो समय की सीमाओं को पार कर आज भी हमें रोशनी दिखाती है। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा धर्म वही है जो मानवता की सेवा करता है, और सच्ची शक्ति वही है जो दूसरों के दुख को कम करने में लगाई जाए। उनका छोटा सा जीवन एक महान संदेश है – आयु कोई मायने नहीं रखती, यदि आत्मा में सत्य और करुणा का प्रकाश हो।
उनके जीवन से हमें यह भी प्रेरणा मिलती है कि चुनौतियों के सामने कभी हार नहीं माननी चाहिए। चाहे वह मुग़ल शासक की सत्ता हो या महामारी का प्रकोप, गुरु हर किशन जी ने हर परिस्थिति में धैर्य, साहस और करुणा का परिचय दिया। उनकी यह शिक्षाएं आज के युग में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जब हम सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। गुरु हर किशन सिंह जी का जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्चा गुरु वही है जो अपने कार्यों से दूसरों को प्रेरित करता है। उनकी स्मृति में हम सभी को यह संकल्प लेना चाहिए कि हम उनके दिखाए मार्ग पर चलें – सेवा, करुणा और सत्य के मार्ग पर। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उनकी जयंती पर हम उनके चरणों में नमन करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि उनकी शिक्षाएं हमें हमेशा प्रेरित करती रहें।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत