लाखों “फॉलोअर्स” फिर भी खोखलापन भावनाएँ “पोस्ट” बनकर रह गई हैं, और संवेदनाएँ “स्टोरी”

भविष्य की सबसे बड़ी ज़रूरत: फिर से इंसान बनना
विकास की ऊँचाइयों पर इंसानियत की गिरावट
इंसानियत का अपहरण: अपराधी हम सब हैं
कभी इंसान होना ही गर्व की बात होती थी—आज वही सबसे कठिन काम बन गया है। यह कैसी विडंबना है कि विज्ञान और तकनीक की ऊँचाइयों पर पहुँचते-पहुँचते हम इंसानियत की नींव खो बैठे हैं। हमारी तरक्की जितनी ऊँची हुई, हमारी संवेदनाएँ उतनी ही नीची गिरती चली गईं। अब इंसान होना सिर्फ़ शरीर में नहीं, आत्मा में दुर्लभ हो गया है। यह युग बाहर से चमकता है, पर भीतर से खोखला—जहाँ दिलों की जगह आँकड़े गूँजते हैं और भावनाओं को एल्गोरिद्म बाँध लेते हैं। हम उस मोड़ पर खड़े हैं, जहाँ हमें पूछना पड़ रहा है: इंसान कहलाने का असली अर्थ हम क्यों भूल गए?
आज का समाज एक ऐसे दर्पण में बदल गया है, जो हमें हमारा बाहरी रूप तो दिखाता है, पर उसका सार छिपा लेता है। पहले गाँव-मोहल्लों में लोग सुख-दुख के साथी बनते थे। खुशी हो या गम, पड़ोसी बिना बुलाए कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो जाते थे। आज वही पड़ोसी स्मार्टफोन की स्क्रीन में डूबा है, और किसी का दुख उसके लिए बस एक क्षणिक वीडियो बनकर रह गया। सड़क पर घायल की पुकार गूँजती है, पर लोग पहले कैमरे की रिकॉर्डिंग शुरू करते हैं। यह वह संवेदनहीन युग है, जहाँ इंसान की कीमत उसके दर्द के “व्यूज” से तौली जाती है। क्या यही वह आधुनिकता है, जिसे हमने अपने सपनों में सजाया था?
संवेदना का यह पतन आज की सबसे बड़ी त्रासदी है। जब किसी का दर्द हमारे दिल को नहीं छूता, जब किसी की पुकार हमारे कदमों को नहीं रोकती, तब हमारी मानवता पर सवाल उठने लगते हैं। हम इतने आत्ममुग्ध हो चुके हैं कि दूसरों के आँसुओं को देखने का वक्त ही नहीं बचा। हर कोई अपनी जिंदगी की दौड़ में इतना आगे निकल जाना चाहता है कि पीछे छूट गए लोगों का ख्याल ही भूल जाता है। हमने समय को इतना अनमोल बना दिया है कि किसी के लिए दो पल ठहरना भी हमें घाटे का सौदा लगता है। पर क्या यह घाटा वाकई समय का है, या हमारी करुणा का?
ईमानदारी, जो कभी समाज का मजबूत आधार थी, आज विलुप्तप्राय हो चुकी है। अब सच बोलना मूर्खता समझा जाता है, और झूठ को चतुराई का तमगा मिलता है। लोग सच को इसलिए दबाते हैं, क्योंकि वह “जटिल” है; झूठ आसान है, त्वरित लाभ का रास्ता है। रिश्तों में भी अब सौदेबाजी हावी है। पहले दिल से दिल मिलते थे; आज रिश्ते शर्तों और अनुबंधों की बेड़ियों में जकड़े हैं। पहले एक वचन ही काफी था; आज वादे कागजों की स्याही में सिमट गए हैं। यह वह युग है, जहाँ भरोसा एक भूली-बिसरी कहानी बन गया है, और स्वार्थ ही हर रिश्ते की नींव बन चुका है।
हमारे बच्चे ऐसे माहौल में पल रहे हैं, जहाँ जीत को ही सब कुछ माना जाता है—चाहे वह किसी भी कीमत पर आए। स्कूलों में पढ़ाई के साथ-साथ यह सिखाया जाता है कि कैसे दूसरों को पछाड़ा जाए। नैतिकता और करुणा जैसे शब्द अब किताबों तक सिमट गए हैं। हम भूल चुके हैं कि समाज केवल व्यक्तिगत उपलब्धियों का जोड़ नहीं, बल्कि करुणा, सहानुभूति और ईमानदारी का एक नाजुक ताना-बाना है। जब ये धागे कमजोर पड़ते हैं, तो वह सामाजिक ढांचा चरमराने लगता है, जो हमें एकजुट रखता है।
सोशल मीडिया ने इस संकट को और गहरा किया है। यह मंच हमें हज़ारों लोगों से जोड़ने का दम भरता है, पर असल में हमें अकेला छोड़ देता है। लाखों “फॉलोअर्स” के बीच भी लोग खोखलापन(Millions of "followers," yet hollowness.) महसूस करते हैं। यहाँ भावनाएँ “पोस्ट” बनकर रह गई हैं(Emotions have become "posts), और संवेदनाएँ “स्टोरी” (feelings have become "stories)बनकर 24 घंटे में मिट जाती हैं। लोग एक-दूसरे को समझने की बजाय “रिएक्ट” करते हैं, और सच्चे संवाद की जगह “कमेन्ट्स” ने ले ली है। यह डिजिटल युग हमें जोड़ने का वादा करता है, पर वास्तव में हमें और अलग-थलग कर रहा है। हमारी भावनाएँ अब स्क्रीन की चकाचौंध में कैद हैं, और असली दुनिया में हमारा दिल ऑफ़लाइन हो चुका है(Our hearts have gone offline.)।
क्या यही वह प्रगति है, जिसका हमने सपना देखा था? हमने मंगल पर यान भेजे, चाँद पर कदम रखे, पर अपने पड़ोसी के दरवाजे तक जाने का वक्त नहीं निकाला। हमारे पास हर सवाल का जवाब देने वाली मशीनें हैं, पर किसी के दुख को समझने वाला दिल नहीं। हम तकनीक में जितने आगे बढ़े, मानवीयता में उतने ही पीछे रह गए। यह वह युग है, जहाँ सब कुछ खरीदा जा सकता है—सिवाय इंसानियत के।
लेकिन क्या यह निराशा ही अंत है? कतई नहीं। मानवता का इतिहास हमें सिखाता है कि हर अंधेरे के बाद उजाला आता है। आज भी कुछ लोग हैं, जो बिना स्वार्थ के दूसरों की मदद करते हैं। कोई अनजान व्यक्ति सड़क पर गिरे हुए को उठाता है, कोई भूखे को खाना देता है, कोई सच के लिए डटकर खड़ा होता है—ये छोटे-छोटे प्रयास ही इंसानियत की लौ को जलाए रखते हैं। इंसान बनना भले ही कठिन हो गया हो, पर यही वह चुनौती है, जो हमें फिर से इंसान बनने की प्रेरणा देती है।
हमें आत्मनिरीक्षण की जरूरत है। हमें यह पूछना होगा कि हम क्या बनना चाहते हैं—ऐसी मशीनें, जो सिर्फ़ काम करती हैं, या ऐसे इंसान, जिनमें करुणा और सच्चाई बाकी है? असली सफलता धन, यश या शोहरत में नहीं, बल्कि किसी के चेहरे पर लाई गई मुस्कान में है। वह व्यक्ति जो दूसरों के दर्द को महसूस करता है, जो सच के लिए अकेले खड़े होने का साहस रखता है—वही आज का सच्चा नायक है।
आज दुनिया को मशीनों से ज्यादा इंसानों की जरूरत है। मशीनें हर काम कर सकती हैं, पर किसी के आँसुओं को पोंछने का हुनर सिर्फ़ इंसानों में है। अगर हम यह हुनर खो देंगे, तो हमारी सारी उपलब्धियाँ बेमानी हो जाएँगी। अब समय है कि हम फिर से याद करें—इंसान बनना सबसे कठिन काम हो सकता है, पर यही वह काम है, जो हमें इंसान बनाता है। इस दौड़ में शामिल हों—न दूसरों को पीछे छोड़ने की, बल्कि एक-दूसरे का हाथ थामने की। क्योंकि इंसानियत ही वह धागा है, जो हमें जोड़े रखता है। अगर यह टूट गया, तो सारी सभ्यता बिखर जाएगी।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत