देखना-सोचना-शेयर करना: एक क्लिक से होती है हिंसा

फेक वीडियो, असली ज़ख्म: मानसिक हिंसा का नया चेहरा

देखना-सोचना-शेयर करना: एक क्लिक से होती है हिंसा

एक पल में जिंदगी पलट जाती है। मोबाइल की स्क्रीन पर एक वीडियो चमकता है - चेहरा धुंधला, फिर साफ। दिल धक् से रुक जाता है, ये मैं हूँ। सवालों का तूफान मन को घेर लेता है: ये वीडियो कब बना? किसने बनाया? क्यों? और अब ये लाखों स्क्रीनों पर बिना मेरी इजाजत के वायरल हो रहा है। एक क्लिक ने मानो मेरी दुनिया की नींव हिला दी। न चेहरा छिपाने की जगह, न सच बताने का मौका। हर स्क्रीन एक कटघरा, हर दर्शक एक जज, और फैसला पहले ही सुना दिया गया। यह डिजिटल युग का नया युद्ध है—फेक और संवेदनशील वायरल वीडियो, जो निजता को कुचलते हैं, मानसिक स्वास्थ्य को तहस-नहस करते हैं, और आत्मा को जख्मी कर देते हैं।

आज वायरल होना गर्व की बात नहीं, खौफ की वजह बन गया है। तकनीक, जो कभी इंसानियत की दोस्त थी, अब कई बार दुश्मन बन रही है। स्मार्टफोन, डीपफेक, और एडिटिंग टूल्स अब हर किसी के हाथ में हैं। 2023 की एक डिजिटल इंडिया रिपोर्ट बताती है कि भारत में 82% लोग स्मार्टफोन इस्तेमाल करते हैं और हर दिन औसतन 4.5 घंटे सोशल मीडिया पर बिताते हैं। इस भीड़ में कोई भी अनजाने में कैमरे की नजर का शिकार बन सकता है। कभी किसी लड़की का बिना अनुमति रिकॉर्ड किया गया वीडियो अश्लील टिप्पणियों का शिकार बनता है। कभी किसी छात्र का भावुक पल मज़ाक का विषय बन जाता है। कभी किसी बुजुर्ग की कमजोरी को कैमरे में कैद कर व्यूज बटोरे जाते हैं। ये वीडियो सिर्फ कंटेंट नहीं, बल्कि मानसिक हिंसा के हथियार हैं।




यह हिंसा दिखाई नहीं देती, पर इसके निशान गहरे होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं, और साइबर बुलिंग इसका एक बड़ा कारण है। फेक या संवेदनशील वीडियो के वायरल होने से पीड़ितों में डिप्रेशन, चिंता, और आत्मविश्वास की कमी देखी गई है। ‘साइबर साइकोलॉजी, बिहेवियर, एंड सोशल नेटवर्किंग’ जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि 68% साइबर उत्पीड़न के शिकार लोग सामाजिक अलगाव और आत्म-सम्मान की हानि से जूझते हैं। कुछ मामलों में, यह आघात आत्महत्या जैसे चरम कदमों तक ले जाता है। 2023 में एक 19 वर्षीय छात्रा का मामला सामने आया, जिसका डीपफेक वीडियो वायरल होने के बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी और गंभीर अवसाद का शिकार हो गई। यह एक कहानी नहीं, बल्कि हर दिन की सच्चाई है।

डीपफेक तकनीक इस संकट को और गहरा रही है। ‘टेक्नोलॉजी रिव्यू’ की 2024 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, डीपफेक वीडियो बनाने की लागत अब 100 डॉलर से भी कम है, और इसे बनाने में मिनटों का समय लगता है। 2023 में भारत में डीपफेक से जुड़े साइबर अपराधों में 40% की वृद्धि हुई। यह तकनीक इतनी उन्नत हो चुकी है कि असली और नकली में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। एक एडिटेड वीडियो किसी की जिंदगी को झूठ का शिकार बना सकता है, और इसका असर—दर्द, बदनामी, और मानसिक आघात—हमेशा असली होता है।

क्या कानून इसका जवाब देता है? हाँ, कागजों पर। भारत में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66E, IPC की धारा 354C (वॉयरिज्म), और धारा 509 (महिला की गरिमा का अपमान) जैसे कानून मौजूद हैं। 2023 में राष्ट्रीय साइबर क्राइम पोर्टल पर 50,000 से अधिक साइबर अपराधों की शिकायतें दर्ज हुईं, जिनमें 15% निजता के उल्लंघन से जुड़ी थीं। मगर सच्चाई कड़वी है—कानूनी प्रक्रिया धीमी और जटिल है। जब तक पीड़ित को न्याय मिलता है, उसका मानसिक और सामाजिक जीवन तबाह हो चुका होता है। और सबसे दुखद? समाज का रवैया। उसने ऐसा क्यों किया?, कैमरे से क्यों नहीं बचा?, सोशल मीडिया से दूर रहना चाहिए था। ये सवाल पीड़ित को और अपमानित करते हैं। गलती करने वाला नहीं, बल्कि पीड़ित ही कटघरे में खड़ा हो जाता है।

इस चक्रव्यूह में हमारी चुप्पी सबसे बड़ा हथियार है। हर बार जब हम संवेदनशील वीडियो को देखते हैं, हंसते हैं, या शेयर करते हैं, हम अनजाने में इस हिंसा के भागीदार बन जाते हैं। 2022 में साइबर क्राइम पोर्टल की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में साइबर उत्पीड़न के 60% मामले सोशल मीडिया पर वायरल कंटेंट से जुड़े थे। हमारा एक शेयर, एक लाइक, किसी की जिंदगी को और गहरे अंधेरे में धकेल सकता है।

समाधान के लिए सामूहिक जिम्मेदारी जरूरी है। सबसे पहले, डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा देना होगा। स्कूलों और कॉलेजों में बच्चों को सिखाना होगा कि हर वीडियो ‘कंटेंट’ नहीं, बल्कि किसी की जिंदगी का हिस्सा हो सकता है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को संवेदनशील कंटेंट की शिकायतों पर तुरंत कार्रवाई करनी होगी। रिपोर्टिंग और रिमूवल प्रक्रिया को और सरल करना होगा। तकनीकी स्तर पर, डीपफेक डिटेक्शन टूल्स को और प्रभावी करना होगा। कई प्लेटफॉर्म्स ने इस दिशा में कदम उठाए हैं, लेकिन इसे और व्यापक करना जरूरी है। और सबसे जरूरी, हमें अपनी सोच बदलनी होगी। हर क्लिक से पहले यह सोचना होगा: क्या मैं किसी की तकलीफ को बढ़ावा दे रहा हूँ?

हर वायरल वीडियो के पीछे एक इंसान की कहानी हो सकती है। कुछ कहानियाँ गोपनीय रहने की हकदार हैं। कुछ को भुला देने की जरूरत होती है। हमें यह समझना होगा कि तकनीक ताकत है, मगर इसे मानवता के लिए इस्तेमाल करना हमारी जिम्मेदारी है। डिजिटल ज़मीर जगाना होगा—ऐसी चेतना जो हर वीडियो को पहले इंसान की जिंदगी समझे, न कि महज कंटेंट।जिंदगी की कीमत एक क्लिक से नहीं तय होती। फिर भी, एक क्लिक किसी की जिंदगी को तबाह कर सकता है। आइए, इस डिजिटल युग में इंसानियत को जिंदा रखें। हर शेयर से पहले रुकें, हर लाइक से पहले सोचें। क्योंकि यह हिंसा तलवार से नहीं, कैमरे से होती है। यह खून नहीं बहाती, पर आत्मा को रिसने पर मजबूर करती है। एक छोटा सा कदम, एक जागरूक फैसला, किसी की जिंदगी को बचा सकता है। वायरल होने की होड़ में इंसानियत को वायरल करें।

प्रो. आरके जैन “अरिजीत

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