युद्द -जीतते हैं तो बस हथियार निर्माता!

युद्ध: जीतकर भी हार जाते हैं विजेता, जीतते हैं तो बस हथियार निर्माता!
हमारे शांतिप्रिय और अहिंसक कहलाने वाले देश की वीरपूजा की परंपरा और युद्धकामना कम से कम 'महाभारत' जितनी पुरानी तो है ही. नहीं होती तो वह वैसा विनाशकारी युद्ध कैसे लड़ लेता, जिसमें, और तो और, न जीत का कोई अर्थ रह गया, न हार का.
कृष्ण प्रताप सिंह
हमारे शांतिप्रिय और अहिंसक कहलाने वाले देश की वीरपूजा की परंपरा और युद्धकामना कम से कम ‘महाभारत’ जितनी पुरानी तो है ही. नहीं होती तो वह वैसा विनाशकारी युद्ध कैसे लड़ लेता, जिसमें, और तो और, न जीत का कोई अर्थ रह गया, न हार का. लेकिन उस वक्त भी कम से कम एक अर्जुन थे, जो सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने के बावजूद युद्धेच्छु नहीं थे और कृष्ण को उनकी युद्धेच्छा जगाने के लिए गीता का ज्ञान देना पड़ा था.
कल्पना की जा सकती है कि अगर उस समय आज के गोदी मीडिया जैसे युद्धपिपासु टीवी न्यूज़ और यूट्यूब चैनल होते (जो अमेरिकी दबाव में युद्धविराम के ऐलान से पहले तक लगातार बढते भारत-पाक तनाव को, जैसे भी बने, आर या पार के विकट युद्ध में बदल देने की कोशिशों में लगे रहे) तो धनुष-बाण त्यागकर रणभूमि में खड़े अर्जुन का हाल कितना बुरा कर डालते.
बहरहाल, इन चैनलों की कारस्तानी से कुछ सिद्ध हुआ तो यही कि इस देश के सत्य व अहिंसा के महानतम पैरोकारों गौतम और गांधी का देश बन जाने के बाद भी वीरपूजा व युद्धकामना में शायद ही कोई कमी आई है. आई होती तो न हिंदी साहित्य में एक समूचा वीरगाथाकाल होता और न युद्धों को लेकर ‘चिंतन-मनन’ की परंपरा ही इतनी समृद्ध होती कि वह शांतिकाल में भी यथावत रहे और कई महानुभाव शांति को दो युद्धों के बीच का अंतराल भर बताएं और उस अंतराल के लिए भी युद्धों को अपरिहार्य करार दें.
इतना ही नहीं, यह ‘चिंतन-मनन’ साहित्य की दुनिया को भी अपने शिकंजे से बाहर नहीं छोड़े, जिसमें आम तौर पर मनुष्य की उदात्त व कोमल भावनाओं की अभिव्यक्तियां हुआ करती हैं.
लेकिन इस युद्ध चिंतन में भी कम से कम एक ऐसी बात है, जिस पर ये चैनल ठीक से गौर कर लें तो वे दूसरों की तो क्या अपनी निगाहों में भी गिर जाएं क्योंकि यह चिंतन धारा भी उनकी तरह असत्यों, अर्धसत्यों, जानबूझकर फैलाये गये भ्रमजालों व कुतर्कों पर आधारित या उनकी जय-जयकार करने वाली नहीं है.
हिंदी में वीरगाथाकाल के कवियों को छोड़ दें, तो युद्धचिंतन में सबसे बड़ा हिस्सा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का है. लेकिन वे ‘याचना नहीं, रण’ और ‘जीवन जय मां कि मरण’ की बात करते हुए भी अविवेकपूर्ण तरीकों से युद्ध को दिव्य बताने या सिद्ध करने में लगे इन चैनलों के साथ या उनकी जमीन पर खड़े नहीं खड़े होते. यह कहते हुए भी वे हकलाते नहीं हैं कि ‘युद्ध को वे दिव्य कहते हैं जिन्होंने, युद्ध की ज्वाला कभी जानी नहीं है.’
निर्भय होकर यह बताने में भी असुविधा नहीं ही महसूस करते कि साधन को भूल सिद्धि पर जब टकटकी हमारी लगती है, तब विजय छोड़ भावना और कोई न युद्ध में जगती है, तब जो भी आते विघ्न रूप हों धर्म शील या सदाचार, एक ही भांति हम करते हैं, सबके सिर पै पाद प्रहार.
वह कौन रोता है वहां?
‘कुरुक्षेत्र’ में तो वे युद्धकामियों पर सवालों की झड़ी लगाते हुए अंधराष्ट्रवादियों को भी आईना दिखा देते हैं :
वह कौन रोता है वहां-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गई बच लाज सारे देश की?
ईश जानें, देश का लज्जा विषय
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी.
विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में
मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;
चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की सांस से.
जाहिर है कि यह युद्धों की नहीं, उनकी व्यर्थता की ओर ले जाने वाली चिंतन धारा है, लेकिन क्या यह हर युद्धपिपासु को आश्वस्त कर सकती है? कर सकती तो भला युद्ध होते ही क्यों? यह क्योंकर पूछा जाता कि कोई आपके स्वत्व या अपनों के प्राण-हरण पर आमादा हो और बात-बात पर अट्टहासपूर्वक ‘युद्धं देहि’ की रट लगाए रखे तो क्या शांति की आड़ में बगलें झांकते हुए अहिंसा के लबादे में कायरता को अंगीकार कर लिया जाए?
इसका उत्तर हां में नहीं दिया जा सकता. क्योंकि अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी भी कह गये हैं कि वह कायरता की पर्याय नहीं है और न खुद को हिंसा से विरत रखने भर से पूरी होती है क्योंकि उसके साथ हिंसा न होने देने यानी उसे रोकने का कर्तव्य भी जुड़ा हुआ है. हां, बिल्ली के सामने शेर की तरह गुर्राना और शेर के सामने भीगी बिल्ली बन जाना भी अहिंसा नहीं ही है.
त्रासद दुरंगापन!
इसीलिए महात्मा गांधी ने कभी ऐसी चुनौतियों के सिलसिले में एक बहुत असुविधाजनक सवाल पूछा था: दुष्ट आपसे सवाया है तो आप उस पर हाथ उठाकर क्या करेंगे? नरेश अग्रवाल की ‘आक्रमण’ शीर्षक यह बेहद छोटी कविता शायद इसी सवाल को संबोधित है: आक्रमण हमेशा समाज के कमजोर हिस्से पर ही होता है.
इसमें ‘समाज’ की जगह ‘देश’ करके देख लीजिए, सब साफ़ हो जाएगा. शक्ति और सामर्थ्य से संपन्न देशों पर युद्ध कौन थोपता है भला? उनसे तो उलझने से भी परहेज किया जाता है. इसे यों भी समझ सकते हैं कि जितनी आसानी से हम पाक को सबक सिखाने की बात कहते हैं, क्या चीन को भी कह पाते हैं?
एक और पहलू से देखें, तो युद्ध देशों की छोटाई-बड़ाई, कमजोरी व मजबूती और उनके प्राकृतिक व भौतिक संसाधनों पर कब्जे या लूटपाट वगैरह के कारकों से तो संचालित होते ही हैं, इसलिए भी होते हैं कि जो लोग युद्ध नहीं चाहते, उनके मन मस्तिष्क भी युद्धों को लेकर दुरंगापन से बाहर नहीं निकल पाते. बकौल राजेन्द्र
राजन :
हम चाहते हैं कि युद्ध न हों
मगर फ़ौजें रहें
ताकि वे एक दूसरे से ज़्यादा बर्बर
और सक्षम होती जाएं कहर बरपाने में
हम चाहते हैं कि युद्ध न हों
मगर दुनिया हुक़ूमतों में बँटी रहे
जुटी रहे घृणा को महिमामण्डित करने में
हम चाहते हैं कि युद्ध न हों
मगर इस दुनिया को बदलना भी नहीं चाहते
हमारे जैसे लोग
भले चाहें कि युद्ध न हों
मगर युद्ध होंगे.
और होंगे तो क्या होगा? राजेंद्र राजन अपनी दूसरी कविता में बताते हैं :
जो युद्ध के पक्ष में नहीं होंगे
उनका पक्ष नहीं सुना जाएगा
बमों और मिसाइलों के धमाकों में
आत्मा की पुकार नहीं सुनी जाएगी
धरती की धड़कन दबा दी जाएगी टैंकों के नीचे
सैनिक ख़र्च बढ़ाते जाने के विरोधी जो होंगे
देश को कमज़ोर करने के अपराधी वे होंगे
राष्ट्र की चिंता सबसे ज़्यादा उन्हें होगी
धृतराष्ट्र की तरह जो अंधे होंगे
सारी दुनिया के झंडे उनके हाथों में होंगे
जिनका अपराध बोध मर चुका होगा
वे वैज्ञानिक होंगे जो कम से कम मेहनत में
ज़्यादा से ज़्यादा अकाल मौतों की तरक़ीबें खोजेंगे
जो शांतिप्रिय होंगे मूकदर्शक रहेंगे भला अगर चाहेंगे
जो रक्षा मंत्रालयों को युद्ध मन्त्रालय कहेंगे
जो चीज़ों को सही-सही नाम देंगे
वे केवल अपनी मुसीबत बढ़ाएंगे
जो युद्ध की तैयारियों के लिए टैक्स नहीं देंगे
जेलों में ठूंस दिए जाएंगे
देशद्रोही कहे जाएंगे जो शासकों के पक्ष में नहीं आएंगे
उनके गुनाह माफ़ नहीं किए जाएंगे
सभ्यता उनके पास होगी
युद्ध का व्यापार जिनके हाथों में होगा
जिनके माथों पर विजय-तिलक होगा
वे भी कहीं सहमे हुए होंगे
जो वर्तमान के खुले मोर्चे पर होंगे उनसे ज़्यादा
बदनसीब वे होंगे जो गर्भ में छुपे होंगे
उनका कोई इलाज नहीं
जो पागल नहीं होंगे युद्ध में न घायल होंगे
केवल जिनका हृदय क्षत-विक्षत होगा.
इसीलिए कई बार कहा जाता है कि कोई कितना भी बलशाली क्यों न हो, वह युद्ध शुरू भर कर सकता है. उसे खत्म करना उसके हाथ में नहीं होता. इसलिए कि युद्ध शुरू होते ही हथियार निर्माताओं की विजय कामना लड़ रहे पक्षों की विजय कामना से बड़ी हो जाती है और शुरू करने वाले से ज्यादा शक्ति से वही उसे लड़ने लगते हैं. तभी तो रेखा राजवंशी कहती हैं:
कोई सोचता है/कोई करवाता है
कोई बनवाता है/कोई तुड़वाता है
युद्ध होते हैं/बड़े पनपते हैं
छोटे पिसते हैं
जंग शुरू होती है/हथियारों में
शहर जलने लगते हैं/अंगारों में
देश लड़ते हैं/लोग मरते हैं
मुस्कुराते हैं/भाग्य विधाता
और अंत में/जीतकर भी
हार जाते हैं विजेता
जीतते हैं तो बस
हथियार निर्माता!
इस सिलसिले में एक और बात गौरतलब है: हर युद्ध के अंत में अनिवार्य रूप से शांति वार्ताएं होती हैं. सवाल है कि अंत में होने वाली ये वार्ताएं पहले ही ठीक से क्यों नहीं कर ली जातीं ताकि युद्ध की नौबत ही न आए?
तब युद्ध नहीं होगा!
पद्मजा शर्मा के पास इसका एक बहुत खूबसूरत जवाब है :
व्यक्ति युद्ध करता है
सत्ता साम्राज्य अंतहीन सीमाओं
और ताक़त के लिए
प्यार के लिए नहीं
जिस दिन प्यार के लिए युद्ध होगा
उस दिन युद्ध नहीं होगा.
लेकिन अभी तो वह दिन किसी के सपने में भी नहीं है और आत्मजयी कवि कुंवर नारायण बता गये हैं कि शांति-वार्ताएं होती हैं तो भी दांत पीसे जाते रहते हैं :
अल्लाहो अकबर/विनती है भगवान्
अगर दो तो अणुबम/न ये गन न वो गन.
ब्रह्मास्त्र दानम्/रॉकेट महानम्
महाशून्य खड्डम/समझ गड्ड-मड्डम्
लड़ाकू विमानम्/न अन्नम् न वस्त्रम्
करें शास्त्र-चर्चा/मगर होड़ शस्त्रम्.
हलाहल पचाए/मगर मुंह पे खीसम्
करें शांति वार्ता/मगर दांत पीसम्/
पुराणम् कुरानम्/सभी को प्रणामम्
न साखी न सब्दम्/महायुद्ध ठानम्.
ईसा न इस्लाम/मार्क्सम न बुद्धम्
न मजहब न धम्मम्/परम सत्य युद्धम्
परमाणु बम बम/तुम तुम न हम हम
मिटाने औ’ मिटने में/हम कम न तुम कम.
न पश्चिम न पूर्वम्/नकारम् भविष्यम्
विस्फोट सफलम्/निराकार विश्वम्.
आलेख के शुरू में हम रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के ‘तब जो भी आते विघ्नरूप…’ की बात कर आए हैं. दु:ख की बात है कि उनके संसार से चले जाने के लंबे अर्से बाद भी पादप्रहार वाला वह सत्य नहीं ही बदला है. तभी तो दिनकर कुमार अपनी ‘युद्ध’ शीर्षक कविता में लिखते हैं :
तर्कों के बिना ही
हो सकता है आक्रमण
युद्ध की आचार संहिता
पढ़ने के बावजूद
निहत्थे योद्धा की
हो सकती है हत्या
अदृश्य युद्ध में स्पष्ट नहीं होता
दोनों पक्षों का चेहरा
सिर्फ धुएं से ही
आग की ख़बर मिल जाती है
गिद्ध मृतकों की सूचना दे देते हैं
अनाथ बच्चों के हृदय में
युद्ध समा जाता है
हृदय को पत्थर बनने में
अधिक समय नहीं लगता
असमय ही विधवा बनने वाली
स्त्रियों के चेहरे पर
राष्ट्रीय अलंकरण के बदले में
मुस्कान नहीं लौटाई जा सकती
गर्भ में पल रहा शिशु भी
अदृश्य युद्ध का एक पक्ष होता है
राशन कार्ड से लेकर
रोज़गार केंद्र-मतदाता सूची
खैराती अस्पताल-राहत शिविर तक
हर जगह हर रोज़मर्रा की ज़रूरत की
चीज़ों में घुला-मिला रहता है
युद्ध का स्वाद
समुद्र के पानी की तरह
खारा होता है.
और यह युद्ध
लेकिन बात अधूरी रह जाएगी, अगर यहां उस श्रृंखला के युद्धों पर बात न की जाए, जिन्हें मुक्तियुद्ध कहा जाता है और हमारी आजादी की लड़ाई के वक्त जैसा एक युद्ध शहीद-ए-आजम भगत सिंह और उनके साथियों ने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध शुरू किया था. उस युद्ध के बारे में उनका कहना था कि गुलामी, शोषण, गैरबराबरी और भेदभाव आदि के रहते वह थमने वाला नहीं और उनके बाद भी जारी रहेगा.
पंजाबी कवि स्मृतिशेष अवतार सिंह ‘पाश’ अपनी एक कविता में यह कहते हुए कि ‘हम जिन्होंने युद्ध नहीं किया/तुम्हारे शरीफ़ बेटे नहीं हैं ज़िंदगी!’ युद्धों की उसी श्रृंखला की बात कर रहे थे. तभी उन्हें उस युद्ध से बचने की लालसा बहुत पाखंडी, डरपोक और छोटा बनाने वाली लग रही थी और वे कह रहे थे कि
युद्ध इश्क़ के शिखर का नाम है
युद्ध लहू से मोह का नाम है
युद्ध जीने की गर्मी का नाम है
युद्ध कोमल हसरतों के मालिक होने का नाम है
युद्ध शांति की शुरुआत का नाम है
युद्ध में रोटी के हुस्न को
निहारने जैसी सूक्ष्मता है
युद्ध में शराब को सूंघने जैसा एहसास है
युद्ध यारी के लिए बढ़ा हुआ हाथ है
युद्ध किसी महबूब के लिए आंखों में लिखा ख़त है
युद्ध गोद में उठाए बच्चे की
मां के दूध पर टिकी मासूम उंगलियां हैं
युद्ध किसी लड़की की पहली
‘हां’ जैसी ‘ना’ है
युद्ध ख़ुद को मोह भरा संबोधन है.
गंगा प्रसाद विमल की ‘शांति के विरुद्ध एक कविता’ को भी इसी संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए :
सदियों से
बोलते आदमी को
चुप कराने की साज़िश है शांति.
हर निर्माण
हिंसा से जुड़ा है
चाहे वह बाड़ हो सुरक्षा की
या प्रतिरक्षा के लिए
तनी बंदूक़.
अगला क़दम
जब भी उठेगा
अंत में वह धरती को कुचलेगा
और आगे और आगे
कुचलता हुआ ही बढ़ेगा
चाहे नेपोलियन हो या हिटलर या कोई और
सदियों से
संधियों और वार्ताओं में
शांति के निमित्त बीतता है वक़्त
और अशांति
हिंसा के बहाने जगह बदलती रहती है.
हारी हुई लड़ाई
अंत में सदानंद शाही की ‘जो हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं’ शीर्षक कविता :
टूट चुका है रथ
कीचड़ में धंस गए हैं पहिए
लहूलुहान आत्मा पर
बाणों की बारिश जारी है
फंसे हुए पहिए/और धंसे हुए बाणों को
निकालने तक का/अवकाश नहीं है
युद्ध और प्यार में/सब कुछ को
जायज़ मानने वाले
किसी नियम या नैतिकता के ग़ुलाम नहीं हैं
हारी हुई लड़ाई लड़ने वालों के लिए
नियम है
नैतिकता है विधान है
हारी हुई लडाई लड़ने वाले
सहानुभूति की भीख नहीं मांगते
समर्पण नहीं करते
पीठ नहीं दिखाते
वे क्षत-विक्षत अस्त्रों
और आहत आत्मा से युद्ध करते हैं
वे हार भले जाएं/पराजित नहीं होते.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)