झांसी की वो रानी, जो इतिहास से नहीं, हृदय से जुड़ी है

प्रसंगवश – 18 जून: रानी लक्ष्मीबाई पुण्यतिथि
स्वतंत्रता की पहली शहीद — रानी, माँ, योद्धा
18 जून 1858 — वह तारीख जब भारत की धरती ने न केवल एक रानी को खोया, बल्कि एक ऐसी क्रांति की ज्वाला को वीरगति प्राप्त करते देखा, जिसने अंग्रेजी साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया। ग्वालियर के रणक्षेत्र में, अपने पुत्र को पीठ पर बांधे, तलवार से दुश्मनों को चीरती हुई रानी लक्ष्मीबाई ने न केवल युद्ध लड़ा, बल्कि स्वतंत्रता की उस अग्नि को प्रज्वलित किया, जो आज भी हर भारतीय के हृदय में धधकती है। वह पल केवल एक योद्धा का अंत नहीं था, वह इतिहास के स्वर्णिम पन्नों पर अमर होने वाली एक अनुपम गाथा का प्रारंभ था। रानी लक्ष्मीबाई की गाथा — साहस, बलिदान और स्वाभिमान की गाथा।
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी में हुआ। बचपन में 'मनु' कहलाने वाली यह बालिका साधारण नहीं थी। घुड़सवारी, तलवारबाजी और युद्धकला में निपुण मनु ने बचपन से ही यह सिद्ध कर दिया था कि वह नारीत्व की पारंपरिक परिभाषाओं को तोड़ने के लिए जन्मी है। उनके पिता मोरोपंत तांबे और माता भागीरथी बाई ने उन्हें न केवल संस्कार दिए, बल्कि स्वतंत्र चेतना और साहस का वह बीज बोया, जो आगे चलकर झांसी की रानी के रूप में अंकुरित हुआ। विवाह के पश्चात झांसी के राजा गंगर राव की रानी बनने के बाद, लक्ष्मीबाई ने अपने प्रशासनिक कौशल और प्रजा-प्रेम से झांसी को समृद्ध किया। किंतु, नियति ने उनके लिए एक कठिन मार्ग चुना।
1853 में राजा गंगाधर राव के निधन और उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव को उत्तराधिकारी मानने से अंग्रेजों के इंकार ने झांसी के लिए संकट ला खड़ा किया। ब्रिटिश सरकार ने 'डॉक्टिन ऑफ लैप्स' के तहत झांसी को अपने साम्राज्य में मिलाने की साजिश रची। उस समय रानी लक्ष्मीबाई का वह ऐतिहासिक कथन — "मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी" — केवल एक प्रतिज्ञा नहीं थी, यह अन्याय के विरुद्ध उठा एक ऐसा स्वर था, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली चिंगारी बना। यह वाक्य न केवल झांसी की रक्षा का संकल्प था, बल्कि समूचे भारत के स्वाभिमान की हुंकार था।
1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भारत के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था, और रानी लक्ष्मीबाई इस क्रांति की प्रखर नायिका के रूप में उभरीं। उन्होंने न केवल झांसी की रक्षा के लिए सेना को संगठित किया, बल्कि महिलाओं को युद्धकला में प्रशिक्षित कर एक नया इतिहास रचा। झलकारी बाई, सुंदर-मुंदर जैसी वीरांगनाएं उनकी प्रेरणा से रणभूमि में उतरीं और अंग्रेजों के दांत खट्टे किए। रानी का युद्ध-कौशल और रणनीति इतनी प्रभावशाली थी कि ब्रिटिश सेनानायक ह्यू रोज़ ने स्वयं उनकी प्रशंसा की। झांसी के किले की रक्षा में रानी ने जिस अदम्य साहस का परिचय दिया, वह किसी भी सैन्य इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है।
जब झांसी का किला अंग्रेजों के हाथों में चला गया, तब भी रानी ने हार नहीं मानी। अपने पुत्र को पीठ पर बांध, घोड़े पर सवार होकर वह काल्पी पहुंचीं। वहां से तात्या टोपे और अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर उन्होंने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। ग्वालियर में रानी ने न केवल सैन्य शक्ति का प्रदर्शन किया, बल्कि अपनी कूटनीतिक सूझबूझ से क्रांति को नई दिशा दी। किंतु अंग्रेजों ने कोटा की सराय में उन्हें घेर लिया। 18 जून 1858 को, मात्र 29 वर्ष की आयु में, रानी लक्ष्मी ने अपने अंतिम युद्ध में बलिदान दे दिया। कहा जाता है कि वह अंत तक लड़ीं, और अपनी तलवार की धार से दुश्मनों को पीछे धकेलती रहीं। उनकी मृत्यु एक देह का अंत नहीं, बल्कि एक ऐसी प्रेरणा का जन्म था, जो आज भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव में बस्ती है।
रानी लक्ष्मीबाई का जीवन केवल युद्ध की कहानी नहीं, यह नेतृत्व, आत्मबल और रणनीति का एक जीवंत पाठ है। एक युवा रानी, जिसने राजनीतिक कूटनीति, प्रशासनिक कौशल और सैन्य संगठन को अपने साहसिक निर्णयों से जोड़ा, वह केवल रणभूमि की नायिका नहीं, बल्कि राष्ट्रीय जागरण की अग्रदूत थीं। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि स्वतंत्रता किसी जाति, वर्ग या लिंग की बपौती नहीं, बल्कि हर उस आत्मा का अधिकार है, जो अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का साहस रखती है। उनकी ज्वाला ने न केवल 1857 की क्रांति को प्रेरित किया, बल्कि महात्मा गांधी, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस जैसे अनगिनत क्रांतिकारियों के हृदय में स्वतंत्रता की चिंगारी जलाई।
रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर उन्हें स्मरण करना केवल एक रस्म नहीं, बल्कि एक आत्ममंथन है। क्या हम उस स्वतंत्रता के सच्चे उत्तराधिकारी हैं, जिसके लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी? उनका जीवन हमें सिखाता है कि स्वाधीनता कोई उपहार नहीं, बल्कि तप, त्याग और संघर्ष से अर्जित किया जाने वाला अधिकार है। उन्होंने भारतीय नारी की उस शक्ति को प्रदर्शित किया, जो जब जागती है, तो साम्राज्यों को भस्म कर सकती है। उनकी तलवार की चमक आज भी इतिहास के पन्नों से झांकती है, उनकी आवाज आज भी हर उस आत्मा को पुकारती है, जो स्वाभिमान के लिए जीती है।
रानी लक्ष्मीबाई चली गईं, पर वे अमर हो गईं। उनकी गाथा केवल झांसी की कहानी नहीं, बल्कि समूचे भारत की चेतना की गाथा है। जब-जब भारत माता की पुकार होगी, जब-जब स्वाभिमान पर संकट आएगा, रानी लक्ष्मी का नाम एक हुंकार बनकर गूंजेगा। वे केवल एक रानी नहीं थीं, वे भारत की आत्मा थीं — और सदा रहेंगी।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत