अखंड भारत का नाम, खंडित करने का काम

आरएसएस-भाजपा नाम भले अखंड भारत का लेते हों, वास्तव में काम भारत को खंडित करने का ही करते हैं।
आलेख : राजेंद्र शर्मा
लद्दाख के हाल के घटनाक्रम ने इस सच्चाई को आंखें खोलने वाले तरीके से सामने ला दिया है कि आरएसएस-भाजपा नाम भले अखंड भारत का लेते हों, वास्तव में काम भारत को खंडित करने का ही करते हैं। यह अखंड भारत के पाखंडी नारे के तले संघ-भाजपा के वास्तव में विभाजनकारी आचरण का ही नतीजा है कि आज वह लद्दाख असंतोष की आग में जल रहा है, जिसके बारे में स्वतंत्र भारत की राजनीति और इतिहास की जरा सी भी जानकारी रखने वाला हरेक व्यक्ति यही कहता नजर आता है कि यह तो देश का सबसे शांत और सबसे प्रेम करने वाला हिस्सा था। और देश के सैन्य इतिहास की जरा सी जानकारी रखने वाला हरेक व्यक्ति इसमें यह जोड़ता नजर आता है कि क्या यह वही लद्दाख है, जिसके लोग,भारतीय सेना का बहुत ही मजबूत सहारा तथा आधार बने रहे हैं।
यह लद्दाख के इसी चरित्र के अनुरूप था, जिसका कुछ न कुछ संबंध यहां की मुख्यत: बौद्घ पृष्ठभूमि से भी है, कि पिछले पांच साल से ज्यादा से लद्दाखियों के विशाल बहुमत का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन, अपनी जनता की पूरी तरह से जनतांत्रिक तथा सर्वथा जायज मांगों को लेकर, लगातार और पूरी तरह से गांधीवादी तरीके से आंदोलन चला रहे थे। नेताओं की तथा बड़े पैमाने पर समुदाय की भी बार-बार की भूख हड़तालें और लेह से लेकर दिल्ली तक की लंबी पदयात्रा, इस आंदोलन की प्रमुख हाई लाइट रही थीं। यह भी संयोग ही नहीं था कि इस आंदोलन के पीछे, राजनीतिक संगठनों से बढ़कर, गैर-राजनीतिक सामाजिक, सामुदायिक संगठनों की ही ताकत ज्यादा थी, जो लेह अपेक्स बॉडी और कारगिल डैमोक्रेटिक एलाइंस जैसे ढीले-ढाले, किंतु जनतांत्रिक व समावेशी लोकप्रिय मंचों पर एकजुट हुए थे। और इस आंदोलन का नेतृत्व मैगासेसे समेत अनेक अंतरराष्ट्रीय-राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित और पचासों पेटेंटों के श्रेय से संपन्न, सोनम वांगचुक जैसे समाज तथा पर्यावरण की चिंता करने वाले आविष्कारक तथा उनके साथी कर रहे थे, जिनके जनहित के प्रति समर्पण में कोई सवाल नहीं उठा सकता था।
और इस आंदोलन की मांगें क्या थी? और मांगों से पहले, इनके उठाए जाने के इतिहास पर भी एक नजर डाल लेना उपयोगी होगा। अब से छ: साल पहले, 2019 के अगस्त में जब नरेंद्र मोदी की सरकार ने, संघ-भाजपा के मुस्लिम-विरोधी सांप्रदायिक एजेंडा के हिस्से के तौर पर, जम्मू-कश्मीर राज्य की अस्मिता पर घातक प्रहार किया था और उसके नाम-मात्र के विशेष दर्जे को ही नहीं, राज्य के ही दर्जे को भी खत्म करते हुए, उसे तोड़कर दो केंद्र-शासित प्रदेशों—जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख—में घटा दिया था, तब लद्दाख के लोग कुछ समय तक तो इसी मुगालते में रहे, जिसके लिए उन्हें सपने भी दिखाए गए थे कि यह कदम, अविभाजित जम्मू-कश्मीर में लद्दाख को जितनी स्वायत्तता हासिल थी, उससे ज्यादा स्वायत्तता दिला देगा। लेकिन, जल्द ही उनका यह भ्रम टूट गया, जब उन्होंने यह पाया कि संघ-भाजपा के राज में केंद्र शासित प्रदेश का अर्थ, शब्दशः: पूरी तरह से दिल्ली से ही शासित होना है और यह उनकी स्वायत्तता का पूरी तरह से अंत है।
लद्दाख जैसे पर्यावरणीय दृष्टि से नाजुक और मुख्यत: आदिवासी आबादी वाले प्रदेश के लिए स्वायत्तता का यह अंत इसलिए और भी खतरनाक हो जाता है कि दिल्ली के वर्तमान शासन की 'विकास' की संकल्पना, संक्षेप में दरबारी इजारेदारों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट का रास्ता खोलने की ही संकल्पना है। लद्दाख का बर्फ का रेगिस्तान स्वाभाविक रूप से उनकी नजरों में ऐसी लूट का खुला मैदान है। इसके लक्षण भी जल्द ही दिखाई देने लगे, जब सोलर पार्क के नाम पर एक शहर के बराबर जमीन दिल्ली के शासकों के चहेते इजारेदार, अडानी को सौंपने और इसी तरह से जमीन के बंटवारे की तैयारियां शुरू हो गयीं, जिससे पशुचारण समेत इन आदिवासियों का परंपरागत जीवन ही खतरे में पड़ जाने वाला था।
इस खतरे के सामने केंद्र शासित प्रदेश के दर्जे से लद्दाख के लोगों का बड़ी तेजी से मोहभंग हुआ और राज्य के दर्जे की मांग उभरकर सामने आ गयी। इस मांग को इस तथ्य से और बल मिला कि जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा बहाल किए जाने का वादा मोदी सरकार फिर भी जब-तब दोहराती रही है, लद्दाख को इस वादे से अलग रखा गया है। यह दूसरी बात है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने इसका वादा करने के बावजूद और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के गठन के बाद सभी राजनीतिक पार्टियों द्वारा राज्य के दर्जे की मांग किए जाने के बावजूद, केंद्र सरकार ने अपना वादा पूरा करने के प्रति कोई गंभीरता नहीं दिखाई है। जम्मू-कश्मीर विधानसभा के गठन से, इस सब के बीच लद्दाख का ठगा जाना और भी साफ हो गया — जम्मू-कश्मीर के हिस्से के तौर पर विधानसभा में लद्दाख का जो प्रतिनिधित्व हुआ भी करता था, अब वह भी छिन गया था। तमाम विधायी अधिकार छिनने के बाद, उनके पास प्रतिनिधित्व के नाम पर सिर्फ दो डेवलपमेंट काउंसिल बची थीं, लेह और कारगिल की अलग-अलग काउंसिलें।
इसी पृष्ठभूमि में जब 2020 में लेह डैवलपमेंट काउंसिल का चुनाव हुआ, राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग और उससे भी बढ़कर, लद्दाख को छठी अनुसूची में रखे जाने की मांग, ताकि उसकी जमीनों पर अंतत: स्थानीय समुदाय का नियंत्रण बना रहे और ये जमीनें अंधाधुंध तरीके से उद्योगपतियों में नहीं बांटी जा सकें, जनता की एक सर्वस्वीकार्य मांग बन चुकी थी। यहां तक कि भाजपा को भी अपने चुनाव घोषणापत्र में इसका वादा करना पड़ा था और चुनाव प्रचार के दौरान, दोनों मांगों को अपनाना पड़ा था। यह दूसरी बात है कि संघ-भाजपा और उनकी सरकार की, लद्दाख की जनता की इन मांगों के प्रति अगंभीरता और वास्तव में शत्रुता, जनता को दिखाई देने में ज्यादा देर नहीं लगी। आखिरकार, संघ-भाजपा, अपनी विचारधारा से ही, जनगण की स्वायत्तता के नहीं, जनता के खिलाफ सत्ता के ज्यादा से ज्यादा केंद्रीकरण के हामी हैं। और हर कीमत पर अपने दरबारी इजारेदारों के मुनाफे अधिकतम करने वाले 'विकास' की जिद, बढ़ते केंद्रीकरण के उनके इस आग्रह को और भी मारक बना देती है।
इन्हीं हालात में राज्य के दर्जे, छठी अनुसूची और क्षेत्रीय सेवा आयोग तथा लद्दाख के लिए दो लोकसभा सीट —लेह और कारगिल के अलग-अलग — जैसी कुछ अन्य मांगों को लेकर लद्दाख की जनता का लंबा, धैर्यपूर्ण आंदोलन जब शुरू हुआ, संघ-भाजपा स्वाभाविक रूप से उससे बाहर हो गए। कहने की जरूरत नहीं है कि इस आंदोलन का एक और निहितार्थ, बौद्घ-बहुल लद्दाख को, मुस्लिम बहुुल कारगिल के खिलाफ खड़ा करने की संघ-भाजपा की कोशिशों का विफल होना भी था। इन साझा मांगों पर लेह और कारगिल, दोनों पूरी तरह से एकजुट हैं।
अगर दिल्ली में कोई जनतांत्रिक सरकार रही होती उसने लद्दाख की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, उसकी भूमिका, इस आंदोलन की लोकप्रिय प्रकृति, उसके गांधीवादी स्वरूप को देखते हुए और सबसे बढ़कर इसे याद रखते हुए देश की सत्ताधारी पार्टी खुद इन मांगों का वादा कर चुकी थी, लद्दाख की जनता के इस आंदोलन को देश के जनतंत्र तथा जनता की एकता की ताकत बना दिया गया होता। लेकिन, मोदी-शाह की सरकार ने इससे उल्टा ही नतीजा निकलना सुनिश्चित किया। लद्दाख की जनता के प्रचंड बहुमत के समर्थन के बावजूद, गांधीवादी तरीकों से चलाए जा रहे आंदोलन की तब तक अनसुनी की गयी, जब तक हताश युवकों का गुस्सा सड़कों पर नहीं बह निकला।
और ऐसा होने की देर थी, तानाशाह सरकार जो जैसे इसी के इंतजार में थी, अपनी सारी दमनकारी ताकत के साथ, इस शांत प्रदेश के लोगों पर टूट पड़ी। युवाओं के उग्र प्रदर्शन तथा भाजपा कार्यालय समेत यहां-वहां आगजनी का जवाब, केंद्रीय बलों से भीड़ पर सीधे और प्राणघातक तरीके से कमर से ऊपर गोली चलवाने के जरिए दिया गया, जिसमें एक कारगिल योद्घा समेत, चार लोगों की मौत हो गयी और दर्जनों घायल हो गए। इसके साथ ही, पूरे प्रदेश में कर्फ्यू लगा दिया गया, जो इन पंक्तियों के लिखे जाने तक, छठे दिन भी जारी था। इंटरनैट पर पाबंदी लगा दी गयी और संचार के दूसरे साधनों तक पहुंच सीमित कर दी गयी। उधर हिंसा के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर अंधाधुंध, सैकड़ों युवाओं की गिरफ्तारियां की गयी हैं, जिन्हें रखने के लिए भी लद्दाख में कोई इंतजाम ही नहीं है।
शासन के इस हमले के साथ, इतना ही भीषण तथा एक हमला और हुआ है, जिस तरह का हमला संघ-भाजपा राज की खास निशानी ही बन चुका है। यह है, लद्दाख आंदोलन, आंदोलन के नेताओं, आंदोलनकारियों का राक्षसीकरण करने के लिए प्रचार आंधी का हमला। किसान आंदोलन से लगाकर, मोदी शाही के पिछले कई वर्षों में इस सरकार से मांग करने वाले सभी आंदोलनों के खिलाफ आजमाए गए इस हथियार को, अब लद्दाख के लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है। कारपोरेट नियंत्रित मुख्यधारा का मीडिया और संघ की ट्रोल तथा व्हाट्सएप सेनाएं, इसका प्रमुख साधन हैं। पुलिस, सीबीआई, ईडी, इसके साथ तालमेल कर के चलने वाले हथियार हैं। इसी सब के बल पर, लद्दाखी आंदोलन के सबसे चर्चित चेहरे और मुखर नेता, सोनाम वांगचुक को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार करने के बाद, चीनी-पाकिस्तानी एजेंट आदि, आदि घोषित किया जा चुका है और पूरे आंदोलन को चीन, नहीं तो बंगलादेश, नहीं तो पाकिस्तान की साजिश साबित किया जा रहा है।
कहने की जरूरत नहीं है कि इस सब का नतीजा, लद्दाख की जनता का भारतीय संघ से ज्यादा से ज्यादा अलगाव ही हो रहा है। लद्दाख में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, गोलीबारी और कर्फ्यू की इस जबर्दस्त दस्तक ने, इसकी याद दिला दी है कि जम्मू-कश्मीर के साथ 2019 के अगस्त से मोदी शाही द्वारा जो सलूक किया जा रहा था, सिर्फ कश्मीर के लिए ही नहीं था। लद्दाख, अब उसी सलूक के दायरे में आ चुका है। उससे पहले, पूर्वोत्तर में मणिपुर ने करीब ढाई साल में जो देखा है, सब के सामने है। और जाहिर है कि यह कहानी इतने पर ही खत्म नहीं हो जाती है। हिंदी के नाम पर, दक्षिण भारतीय राज्यों के साथ जो हो रहा है, बंगलादेशियों को हटाने के नाम पर बंगलाभाषियों के साथ जो हो रहा है, इस तरह जहां-जहां से देश की एकता को तोड़ा जा रहा है, वह भी सभी देख ही रहे हैं। और शासन के बढ़ते बहुसंख्यकवादी सांप्रदायीकरण के जरिए, जिस तरह सांप्रदायिक खाई चौड़ी की जा रही है वह भी सभी देख रहे हैं। आजादी की लंबी लड़ाई में एकजुट होकर निकले भारत का बढ़ते पैमाने पर खंड-खंड विखंडन, यही आरएसएस के सौ साल का हासिल है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं।)