भारतीय चुनाव आयोग का हत्यारा एसआइआर(SIR )

हत्यारा एसआइआर(SIR)
आलेख : राजेंद्र शर्मा
आखिरकार, चुनाव आयोग(Election Commission of India) ने 12 राज्यों में जारी मतदाता सूचियों के विशेष सघन पुनरीक्षण या एसआइआर (SIR)की समय सूची में एक हफ्तेे की मोहलत दे दी है। गणना प्रपत्र भरकर अपलोड किए जाने की आखिरी तारीख, 4 दिसंबर से बढ़ाकर 11 दिसंबर कर दी गयी है और इसके बाद की सभी संबंधित तारीखें भी एक हफ्ता आगे खिसका दी गयी हैं। लेकिन, चुनाव आयोग ने अपने फैसले में इतनी-सी ढील भी तब दी है, जब देश भर में विपक्ष तो चुनाव आयोग और उसकी पीठ पर हाथ रखे मोदी सरकार की इस मनमानी के खिलाफ शुरू से ही सभी माध्यमों से आवाज उठा ही रहा था और यहां तक कि संसद के चालू शीतकालीन सत्र में इस आवाज का प्रमुखता से सुनाई देना शुरू भी हो गया है, लेकिन इससे भी बढ़कर देश के विभिन्न हिस्सों से आ रहीं एसआइआर के काम में लगे बूथ लेवल आफीसर या बीएलओ (Booth Level Officer or BLO)की काम के असह्य दबाव और तनाव में मौतों और आत्महत्याओं की खबरों ने, चुनाव आयोग और मोदी सरकार को कुंभकर्णी नींद से जागकर कम-से-कम करवट लेने पर मजबूर कर दिया। चुनाव आयोग के एक हफ्ते की मोहलत देने के लिए तैयार होने तक ही, एसआइआर की इस कसरत में कम-से-कम तीस बीएलओ या उनसे उच्चतर अधिकारियों के प्राणों की भेंट चढ़ चुकी थी।
एक हफ्ते की इस ''राहत'' से अस्थायी रूप से इस काम में झोंके गए इन सरकारी स्कूलों के शिक्षकों, कच्चे सरकारी कर्मचारियों, आंगनबाड़ी आदि योजनाकर्मियों की आत्महत्या/ मौतों के इस सिलसिले में कितनी कमी आयेगी, यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन इससे कम से कम इतना तो साफ हो ही जाता है कि एसआइआर(SIR) के लिए चुनाव आयोग ने जिस तरह की अव्यावहारिक समय-सूची देश पर थोप दी है, वह एकदम मनमानी है। औैर यह समय सूची इस अर्थ में पूरी तरह से अकारण भी है कि बिहार के बाद, अब जिन बारह राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में एक साथ इस प्रक्रिया को चलाया जा रहा है, उनमें आधे से ज्यादा में, जिनमें उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात जैसे अधिक आबादी वाले राज्य भी शामिल हैं, अगले साल भी कोई चुनाव नहीं होने हैं। यानी अगर मंशा यह हो कि अगले चुनाव से पहले इन राज्यों में मतदाता सूचियों का कथित ''शुद्घिकरण'' कर लिया जाए, तब भी देश के बड़े हिस्से में और आबादी की विशाल संख्या पर इस तरह की कठोर समय सीमाएं थोपने का कोई कारण नहीं है। यहां तसल्ली से और अगर जरूरी हो, तो पूरे साल का समय लेकर भी, इस काम को किया जा सकता है।
लेकिन, यह तर्क की और जिम्मेदारी की मांग है। और मोदी राज में फैसले लेने वालों को जनता के सामने जवाबदेही से लगभग पूरी तरह से मुक्त करने के जरिए, उन्हें तर्क और जिम्मेदारी से ही तो बरी किया गया है। यही बुनियादी सूत्र है, जो मोदी के पहले कार्यकाल के पूर्वार्द्घ में की गयी नोटबंदी को, उसी के तीसरे कार्यकाल के पूर्वार्द्घ में चुनाव आयोग (Election Commission of India)को आगे रखकर करायी जा रही एसआइआर की कसरत से जोड़ता है, जिसे बहुत से लोगों ने वोटबंदी कहना शुरू भी कर दिया है। बेशक, नोटबंदी और वोटबंदी में एक बड़ी समानता, इनके आम लोगों के लिए जानलेवा साबित होने की भी है। नोटबंदी में, बैकों से अपने ही पैसे निकालने के लिए या बंद कराए जा रहे नोट बदलवाने के लिए, लाइनों में लगे-लगे या इस अकारण परेशानी से हैरान-परेशान होकर, करीब एक सौ चालीस लोगों की जान गयी थी। वोटबंदी भी, इसके दबाव में मौत के मुंह में समा गए बीएलओ के साथ, अगर इस कसरत से अधिकारहीन होने की दुश्चिंताओं से जान देने वालों को भी अगर जोड़ लिया जाए तो, अब तक चार दर्जन मौतों का स्कोर तो बना ही चुकी है।
बहरहाल, नोटबंदी और वोटबंदी में उससे भी बड़ी समानता, उनके ऐसे मनमाने फैसले होने में है, जिनके जरिए आम लोगों पर भारी परेशानी थोपी गयी है। यह तानाशाहीपूर्ण सत्ता का एक मनोरोग है, जिसमें किसी फैसले से जनता को जितनी ज्यादा तकलीफ झेलनी पड़े, उसे शासकों के उतने ही ज्यादा ''साहसिक'' होने का सबूत माना जाता है। नोटबंदी के समय सत्ताधारी संघ-भाजपा का प्रचारतंत्र, इसकी हिम्मत दिखाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की पीठ ठोकने में लगा हुआ था कि उन्होंने लोगों की नाराजगी की परवाह नहीं कर, इतना बड़ा कदम उठाया था ; यह कदम उठाने की दूसरे किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती। यह दूसरी बात है कि इसमें भी अर्द्घसत्य का सहारा लेते हुए उन्होंने ''बड़े-बड़ों को लाइनों में लगवा दिया'' के दावे के साथ, आम लोगों की नाराजगी को इसके विकृत संतोष की ओर भटकाने की कोशिश की थी कि, यह कदम बड़े-बड़ों को उनके बराबर में ला खड़ा करने वाला कदम था। लेकिन, यह सरासर झूठ था, गरीबों के अलावा ज्यादा से ज्यादा मध्यवर्ग के खाते-पीते हिस्से ही लाइनों में लगे और उनमें भी गरीब तथा निम्न-मध्यवर्ग के लोग ही सबसे ज्यादा हलकान हुए, जबकि ''बड़े-बड़ों'' को वास्तव में लाइन में लगने की कोई जरूरत ही नहीं पड़ी। उनके लिए इतने रास्ते खुले हुए थे, जैसे नोटबंदी उनके लिए तो थी ही नहीं।
यही वोटबंदी में भी हो रहा है। बिहार में एसआइआर(SIR) के समय में ही यह साफ हो गया था कि न सिर्फ इसके लिए चुनाव आयोग द्वारा थोपी गयी समय सीमाएं अव्यावहारिक थीं, यह समूची प्रक्रिया ही सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक रूप से कमजोर तबकों, जिनमें महिलाएं तथा अल्पसंख्यक शामिल हैं, प्रतिकूल स्थिति में रखने वाली प्रक्रिया है। और यह किया गया है, गणना फार्म भरने से लेकर, अपने नागरिक होने के साक्ष्य के रूप में, 2003 की मतदाता सूची के संबंध से लेकर, नागरिकता साबित करने के लिए तरह-तरह के प्रमाण प्रस्तुत करने तक की, मांग करने के जरिए। बाद में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद, 12वें प्रमाण के रूप में आधार को स्वीकार किए जाने के बाद, आम लोगों की मुश्किलें कुछ कम तो हुईं और चुनाव आयोग की कैंची कुछ कम तो चली, पर बिहार के हाल के चुनाव से इस समूची प्रक्रिया की, अपने घोषित लक्ष्यों के हिसाब से निरर्थकता ठीक उसी तरह उजागर हो गयी, जैसे चलन से बाहर किए गए लगभग सारे नोट बैंकों में पहुंचने से, नोटबंदी की अपने सभी घोषित उद्देश्यों को हासिल करने में विफलता साबित हुई थी।
चुनाव के दिन जगह-जगह से ऐसे मतदाताओं की तस्वीरें मीडिया में आयीं, जिन्हें मतदाता सूची से नाम कट जाने के कारण बिना वोट डाले वापस लौटना पड़ा था। इसी तरह, ऐसे मतदाताओं की तस्वीरें भी ध्यान देने लायक संख्या में सामने आयीं, जिन्होंने कुछ ही पहले दूसरे राज्यों में वोट डालने के बाद, बिहार में वोट किया। और एसआइआर की पूरी प्रक्रिया के बाद कथित रूप से ''स्वच्छ'' हुईं मतदाता सूचियां वास्तव में कितनी स्वच्छ थीं, इसका पता बखूबी लाखों मतदाताओं के प्रकटत: झूठे नाम-पतों से और लाखों की संख्या में एकाधिक जगहों पर एक ही मतदाता के सूची में मौजूद होने से लगता था। और जब कथित रूप से स्वच्छ की जा रही मतदाता सूचियों की इस ''अस्वच्छता'' को आसानी से पकड़ कर दूर करने के, डुप्लीकेशन के खिलाफ सॉफ्टवेयर चुनाव आयोग के पास होने के बावजूद, उसका उपयोग कर नामों के डुप्लीकेशन का इलाज जरूरी नहीं समझा गया, इसने मतदाता सूचियों के कथित रूप से ''स्वच्छ'' किए जाने की मंशा पर ही सवाल खड़े कर दिए कि यह मतदाता सूचियों को ''स्वच्छ'' करने की कसरत है या चुनाव आयोग की मिलीभगत से चली जा रही, सूचियों को खास दिशा में विकृत करने की चाल?
साफ है कि आम जनता पर भारी तकलीफों का बोझ डाले जाने के बावजूद, यह कोई मतदाता सूचियों को स्वच्छ करने की कसरत नहीं है। यह सत्ताधारियों के पक्ष में बड़े पैमाने पर वोट चोरी का ही हथियार है। इस कसरत का यह दुरुपयोग, जो इसके पिछले दरवाजे से नागरिकता पहचान यानी एनआरसी होने के साथ जुड़ा हुआ है, इस कसरत की संरचना में ही निहित है ; यह एक प्रकार से नये सिरे से सब से इसकी मांग करती है कि अपने नागरिक होने को प्रमाणित कर, मतदाता के रूप में खुद को रजिस्टर कराएं। एसआइआर को उसकी संरचना के ठीक इसी पहलू के आधार पर, जो कि चुनाव आयोग की अनाधिकार चेष्टा है, सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है, जिस पर अदालत अभी विचार कर रही है।
बहरहाल, इसके वोट चोरी का हथियार बनाए जाने की संभावनाओं को, खुद सत्ताधारी भाजपा के प. बंगाल के अध्यक्ष ने, इसके आरोप लगाकर उजागर कर दिया है कि उनके राज्य में इस प्रक्रिया को स्थानीय सत्ताधारी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस (Trinamool Congress)ने अपने लिए वोट चोरी का साधन बना लिया है। राज्य भाजपा अध्यक्ष का कहना है कि सत्ता में होने से तृणमूल कांग्रेस, जमीनी स्तर पर बीएलओ को नियंत्रित कर रही है और जिसका भी बीएलओ(Booth Level Officer or BLO?) पर नियंत्रण होता है, वह इस प्रक्रिया को अपने पक्ष में मोड़ सकता है! हैरानी की बात नहीं है कि वही भाजपा जो बंगाल में एसआइआर में गड़बड़ियों का शोर मचा रही है, बाकी देश भर में एसआइआर को जनतंत्र की रक्षा के लिए अपरिहार्य बता रही है, जैसे कभी नोटबंदी को बता रही थी। ये हत्यारा एसआइआर, आम लोगों से मताधिकार छीनने का ही हथियार है ; जैनुइन मतदाताओं को छांटने के जरिए भी और फर्जी मतदाताओं को जोड़ने के जरिए भी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं।)
