जाति के चक्रव्यूह में फंसा आरएसएस

(आलेख : सवेरा, अनुवाद : संजय पराते)
आरएसएस की विचारधारा की सबसे बड़ी असफलताओं में से एक है हिंदुत्व (या सनातन) का महिमामंडन करने की उसकी लड़खड़ाती-डगमगाती कोशिशें, जबकि वह लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि वह हिंदुत्व के एक अभिन्न अंग -- क्रूर और अमानवीय जाति व्यवस्था -- की निंदा करता है। हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए, आरएसएस सभी हिंदुओं को एकजुट करना चाहता है। यही उसका प्राथमिक लक्ष्य रहा है और वास्तव में, उसके अस्तित्व का मूल कारण भी। लेकिन हिंदुत्व के तथाकथित गौरव का बखान करना, जैसा कि उसके विचारक और नेता एक सदी से करते आ रहे हैं, पर्याप्त नहीं है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, उन्होंने अन्य तरीकों का भी इस्तेमाल किया है -- गैर-हिंदुओं, खासकर मुसलमानों के प्रति घृणा फैलाना ; देश के लिए खतरा पैदा करने वाले दुश्मनों के इर्द-गिर्द केंद्रित अति-राष्ट्रवाद की भावना को भड़काना ; इत्यादि। लेकिन इन सबके बावजूद, और केंद्र में प्रचारकों के नेतृत्व वाली सरकार होने से मिली गति के बावजूद, आरएसएस अभी भी खुद उलझनों में उलझा हुआ है, किसी तरह लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि वे जाति को भूल जाएँ और खुद को सिर्फ़ हिंदू समझें। उनके विचारों और व्यवहार पर बारीकी से नज़र डालना ज़रूरी और शिक्षाप्रद है, ताकि यह समझा जा सके कि आरएसएस वर्षों से इस अप्राप्य लक्ष्य से जूझते हुए किस तरह के पाखंड, झूठ और छल-कपट का सहारा ले रहा है।
जाति व्यवस्था हिंदू धर्म का अभिन्न अंग है
ऋग्वेद, मनु स्मृति, आपस्तंभ धर्मसूत्र, शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण आदि सभी महत्वपूर्ण धर्मशास्त्र न केवल ब्रह्मा के शरीर से चार वर्णों की उत्पत्ति की व्याख्या करते हैं, बल्कि बहिष्कृतों और शूद्रों के कर्तव्यों और उनके उल्लंघनों के लिए दंड का भी विस्तृत विवरण देते हैं। यह सब क्यों दिया गया है? क्योंकि चतुर्वर्ण व्यवस्था हिंदू धर्म का एक अभिन्न अंग थी। यह शासकों द्वारा श्रमिक वर्गों को गुलाम बनाने का प्रमुख साधन था। पदानुक्रमिक व्यवस्था, पवित्रता बनाए रखने की धारणा (अस्पृश्यता, सहभोज का निषेध, विवाह, आदि) और ऐसी ही अन्य विशेषताएँ इसके अभिन्न अंग थे और शास्त्रों द्वारा अनुमोदित थीं।
लेकिन, आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक (सुप्रीमो) और इसके प्रमुख विचारक एमएस गोलवलकर उर्फ गुरुजी कहते हैं कि, "अस्पृश्यता की बीमारी लोगों की इस मान्यता में निहित है कि यह धर्म का हिस्सा है और इसका कोई भी उल्लंघन महापाप होगा। यही विकृत कारण है कि समाज सुधारकों और धर्मगुरुओं के सदियों के समर्पित प्रयासों के बावजूद, यह घातक परंपरा आज भी आम लोगों के दिलों में बसी हुई है।" (गुरुजी और सामाजिक समरसता ; रमेश पतंगे द्वारा संकलित).
इस एक विचार में आपको झूठ का पूरा पुलिंदा दिखाई देता है। स्वयं गुरुजी और आरएसएस, मनुस्मृति को शासन और न्यायशास्त्र के आदर्श ग्रंथ के रूप में स्थापित करते रहे हैं। यह धर्मग्रंथ स्पष्ट रूप से अस्पृश्यता के कानून के उल्लंघन के लिए विभिन्न अमानवीय दंडों का प्रावधान करता है, जिसमें शूद्र की छाया ब्राह्मण पर पड़ने जैसे अपराध भी शामिल हैं। यह असंभव है कि गुरुजी इससे अनभिज्ञ रहे हों। फिर भी वह बेशर्मी से इस बात से इंकार करते हैं कि अस्पृश्यता धर्म या चतुर्वर्ण व्यवस्था का हिस्सा है। इस झूठ को और आगे बढ़ाते हुए वह यह झूठा दावा भी करते हैं कि विभिन्न धर्मगुरु और सुधारक सदियों से इस स्थिति को सुधारने की कोशिश कर रहे हैं। शायद वह बौद्ध धर्म की बात कर रहे होंगे -- लेकिन गोलवलकर ने (उसी पुस्तिका में) जाति व्यवस्था को कमज़ोर करने और पश्चिमी पंजाब तथा पूर्व (बंगाल) और उत्तर-पूर्व में इस्लाम के प्रसार के लिए बौद्ध प्रभाव को ज़िम्मेदार ठहराया है। तो, इस भ्रामक तर्क के अनुसार, इस्लाम से लड़ने के लिए जाति व्यवस्था ज़रूरी थी, फिर यह बुरी बात कैसे हुई? बौद्ध धर्म के अलावा, और कौन-सा सदियों पुराना आंदोलन है, जो सुधार आंदोलन के रूप में पहचाना जा सकता है? यह और कुछ नहीं, बल्कि आरएसएस के पास मौजूद एकमात्र उपकरण -- निराधार (और झूठे) इतिहास -- का हवाला देकर अपने विचारों को पुष्ट करने का एक प्रयास है।
इसी पुस्तिका में गोलवलकर को स्पष्ट रूप से यह कहते हुए उद्धृत किया गया है, "हम न तो जाति व्यवस्था के पक्ष में हैं, न ही उसके विरुद्ध। हम इसके बारे में बस इतना जानते हैं कि संकट के दौर में यह बहुत उपयोगी थी, और अगर आज समाज को इसकी आवश्यकता महसूस नहीं होती, तो यह अपने आप समाप्त हो जाएगी। इसमें दुःखी होने का कोई कारण नहीं है।" वे स्वयंसेवकों से बार-बार आग्रह करते हैं कि वे जातिगत अन्याय के विरुद्ध 'कार्यक्रम' या आंदोलन शुरू करने के बारे में न सोचें, क्योंकि इससे केवल कटुता और विरोध ही बढ़ता है।
आरक्षण
गोलवलकर सकारात्मक कार्रवाई और दलितों व आदिवासियों को अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति कहने की भी कड़ी निंदा करते हैं। आरएसएस के लिए एक पाठ्यपुस्तक है बंच ऑफ थॉट्स, जिसमें गुरुजी के ज्ञान-सागर के मोती संग्रहित हैं। इसमें वे लिखते हैं, "हमारे लोगों के कुछ तबकों को हरिजन, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति आदि नाम देकर उनमें ईर्ष्या और संघर्ष पैदा करने वाली अलगाववादी चेतना को बढ़ावा दिया जा रहा है और उन्हें विशेष रियायतों का लालच देकर, पैसे का लालच देकर अपना गुलाम बनाया जा रहा है।"
यही कारण है कि समय-समय पर आरएसएस नेता नौकरियों में आरक्षण पर पुनर्विचार करने की बात करते रहते हैं, जैसा कि उनके वर्तमान प्रमुख मोहन भागवत ने 2015 और 2018 में किया था, लेकिन बाद में कड़ी प्रतिक्रिया के बाद वे इसे ढकने की कोशिश करते हैं।
अन्यत्र, अन्य आरएसएस नेताओं ने आरक्षण का समर्थन करना बेहतर समझा – लेकिन वे इस बारे में क्या सोचते हैं, इसका एक उदाहरण यहाँ दिया जा रहा है। दत्तोपंत ठेंगड़ी, जो आरएसएस की कई पुस्तिकाओं के लेखक और उनकी ट्रेड यूनियन शाखा (बीएमएस) और किसान संगठन (बीकेएस) के संस्थापक थे, सामाजिक समरसता संघ के भी संस्थापक थे। (ध्यान दें कि 'समरसता' जाति व्यवस्था के बारे में बात करने के लिए आरएसएस का कोड है। इसका शाब्दिक अर्थ समान भावना या विचार है और यह सामाजिक समरसता को दर्शाता है। आरएसएस इसका प्रयोग विशेष रूप से विभिन्न जातियों के बीच सद्भाव के लिए करता है।) ठेंगड़ी का व्याख्यान एक पुस्तिका में प्रकाशित हुआ है, जहाँ वे कहते हैं, "हमारे परिवारों में सदियों से आरक्षण का प्रचलन रहा है। एक माँ के दो बेटे हैं, दोनों स्वस्थ हैं, उन्हें हर सुबह पीने के लिए दूध मिलता है। तीसरा बेटा पैदा होता है, विकलांग और कमजोर, डॉक्टर सलाह देते हैं कि उसे पर्याप्त दूध दिया जाना चाहिए। आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। माँ अपने दोनों बड़े बेटों से कहती है कि मैं तुम्हें हर सुबह दूध देती रही हूँ, लेकिन अब सभी को पर्याप्त दूध देना संभव नहीं है ; डॉक्टर ने कहा है कि इस लड़के को पर्याप्त दूध दो ; इसलिए, मैं तुम दोनों को चाय दूंगी, ठीक है? दोनों लड़के कहते हैं कि यह हमारा भाई है, हम चाहते हैं कि यह स्वस्थ हो जाए। इसलिए, आप इसे दूध दें। हम चाय पी सकते हैं। यह आरक्षण है, जो सदियों से हिंदू परिवारों में प्रचलित है।" (समरस हिंदू समाज, विश्व संवाद केंद्र, झारखंड)
यह बचकाना दृष्टांत – जो आरएसएस की पहचान है – एक क्रूर सच्चाई को छुपाता है। यह दलितों को जन्म से ही विकलांग और कमज़ोर दिखाता है, जो ईश्वर या प्रकृति का एक कृत्य है, और इस क्रूर तथ्य को छुपाता है कि उनकी कमज़ोरी जाति-आधारित सामाजिक व्यवस्था की देन है। यहाँ तक कि आरक्षण के साथ समझौता करते हुए भी – संभवतः दलितों का दिल जीतने के अवसरवादी कारणों से – आरएसएस अपनी अहंकारी ब्राह्मणवादी सोच को उजागर करने के लिए मजबूर है।
इसी बुनियादी पूर्वाग्रह के कारण आरएसएस और उसके सहयोगी संगठन, जिनमें पहले जनसंघ और बाद में भाजपा भी शामिल है, हमेशा आरक्षण-विरोधी आंदोलनों का हिस्सा बनते हैं। वे 1978 में बिहार, 1981 में गुजरात और 1990 के मंडल-विरोधी आंदोलन में आरक्षण-विरोधी आंदोलनों का हिस्सा थे। औपचारिक रूप से, वे खुले तौर पर आरक्षण का विरोध नहीं करते, लेकिन व्यवहार में वे विरोध करते हैं। गोलवलकर और अन्य नेता अक्सर कहा करते थे कि सभी जातियों में गरीब लोग हैं, उनके लिए भी कुछ किया जाना चाहिए। अंततः, इससे आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत सीटों और रिक्तियों का आरक्षण हुआ, जो वास्तव में बिल्कुल निरर्थक था, क्योंकि इसमें 8 लाख रुपये की वार्षिक आय सीमा निर्धारित की गई थी --- इस प्रकार देश की लगभग 90 प्रतिशत आबादी इसके दायरे में आ गई।
जातिगत अन्याय के खिलाफ आरएसएस का संघर्ष
आरएसएस वर्षों से अस्पृश्यता से लड़ने और समाज में 'समरसता' स्थापित करने के तरीके खोजने का प्रयास कर रहा है। एक समय गोलवलकर ने कहा था कि धर्मगुरुओं (धर्म के आदरणीय शिक्षकों) द्वारा अछूत माने जाने वाले लोगों को शुद्ध करने के लिए एक सरल अनुष्ठान की कल्पना की जानी चाहिए और उन्हें पवित्र किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, "यदि धर्मगुरु ऐसी कोई प्रक्रिया बनाते हैं और उसे स्वीकार करते हैं, तो धर्म की पूरी शक्ति उसके पीछे होगी और जो लोग इसका विरोध करते हैं, वे कमज़ोर हो जाएँगे।" उन्होंने आगे बताया कि यह सरल अनुष्ठान क्या हो सकता है : "यह इतना सरल होना चाहिए कि गले में केवल एक माला डालना और ईश्वर का नाम (नाम-स्मरण) लेना ही पर्याप्त हो।" (श्री गुरुजी समग्र, खंड 9, पृष्ठ 169-170)
ध्यान दें कि अछूत माने जाने वाले लोगों को इस प्रक्रिया या अनुष्ठान से गुज़रना ही होगा, चाहे वह कितना भी सरल और आसान क्यों न हो। जो लोग सोचते हैं कि दूसरे इंसान अछूत हैं और वे अमानवीय दंड के पात्र हैं, यदि वे सीमाओं का उल्लंघन करते हैं तो उन्हें किसी भी अनुष्ठान या पूजा-अर्चना से नहीं गुज़रना चाहिए। बेशक, इस नुस्खे का उद्देश्य ऊँची जातियों को यह विश्वास दिलाना है कि वह व्यक्ति अब 'स्पर्श योग्य' हो गया है। बहरहाल, यह सारी विकृत सोच धरी की धरी रह गई। जैसा कि 1969 में विश्व हिंदू परिषद के बहुप्रशंसित उडुपी सम्मेलन में हुआ था, जहाँ विभिन्न हिंदू संप्रदायों के साधु-संत एकत्रित हुए थे और उन्होंने घोषणा की थी कि अछूत प्रथा अस्वीकार्य है। गोलवलकर ने इस घोषणा के महत्व पर बार-बार ज़ोर दिया, लेकिन वे इसका हश्र देखने के लिए ज़्यादा दिन जीवित नहीं रहे, और 1973 में उनका निधन हो गया। दलितों पर अत्याचार न केवल बेरोकटोक जारी रहे हैं, बल्कि बढ़े भी हैं – और इसमें आरएसएस और उसके सहयोगियों की भी कम भूमिका नहीं है।
बाद में, आरएसएस नेताओं ने समाज में समरसता की भावना जगाने के लिए विभिन्न अभियान शुरू किए। इसमें तीन कार्यक्षेत्र शामिल थे, जैसा कि मोहन भागवत ने अपने सरकार्यवाह (एक प्रकार से महासचिव या कार्यकारी, जो सरसंघचालक के बाद दूसरे स्थान पर आता है) के रूप में समझाया था : स्वयंसेवक और उसका परिवार, उसका संगठन और व्यापक समाज। इसका उद्देश्य पदानुक्रम की आदत और साथ में भोजन करने या एक जैसा जीवन जीने के निषेध को समाप्त करना था। दलित परिवारों से मिलना, उनके उत्सवों या शुभ अवसरों में भाग लेना और ज़रूरत के समय वहाँ उपस्थित रहना, और ऐसी ही अन्य गतिविधियाँ करने का आरएसएस सदस्यों से आग्रह किया जाता हैं। उन्हें अपने परिवार को भी इस दृष्टिकोण से जोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
यह सब इस सिद्धांत पर आधारित है कि जाति एक मानसिक रचना है, एक आदत है, और यदि इसे धीरे-धीरे नए 'संस्कारों' से बदल दिया जाए, तो यह लुप्त हो जाएगी। यह कितना प्रभावी रहा है, यह सभी के सामने है। क्या ऐसा इसलिए है, क्योंकि पद्धति ही गलत है? या ऐसा इसलिए है, क्योंकि इसे कभी पूरी तरह से लागू नहीं किया गया? उत्तर है : दोनों। जब भ्रम होगा, या यूँ कहें कि विरोधाभासी विचार होंगे, तो पूरा दृष्टिकोण त्रुटिपूर्ण होगा और इसलिए कार्यान्वयन अपूर्ण होगा। दशकों तक इसका अनुसरण करने के बाद, आरएसएस ने एक बार फिर घोषणा की है कि वह 'पंच परिवर्तन' नामक एक विशाल कार्यक्रम शुरू करने जा रहा है, जो परिवार, संगठन और समाज के उन्हीं तीन क्षेत्रों से होकर गुजरेगा। ये पाँच परिवर्तन हैं : सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, पर्यावरण, स्व पर जोर और नागरिक कर्तव्य। एक बार फिर, समरसता एजेंडे पर है, क्योंकि आरएसएस हिंदू एकता का निर्माण करते हुए जातिगत विभाजन की गुत्थी सुलझाने की कोशिश में लगा है। वह इस बात की समीक्षा तक नहीं कर पाया है कि सौ सालों में वह ऐसा करने में क्यों विफल रहा है -- और वह समय दूर नहीं, जब उसे इस असफलता पर पछताना पड़ेगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)
