क्या सरकार से सवाल पूछना देश की बदनामी करना है?

क्या सरकार से सवाल पूछना सेना पर अविश्वास करना है?
यह सवाल हर घटना-दुर्घटना, हमले के बाद उठता है। और हर बार सत्ता प्रतिष्ठान इसे देश और देशभक्ति से जोड़कर हर किसी को चुप करा देता है।
न्यूज हैंड/मुकुल सरल
यह सवाल हर घटना-दुर्घटना, हमले के बाद उठता है। वो चाहे पठानकोट का हमला हो, या पुलवामा का हमला। या अब पहलगाम का हमला। कोई भी सवाल उठने पर सत्ता प्रतिष्ठान ख़ासौतर पर भाजपा के नेता, भाजपा के समर्थक, उनकी ट्रोल आर्मी सवाल उठाने वाले पर ही हल्ला बोल देती है और सरकार से पूछे गए सवालों को सेना पर अविश्वास करार देने लगती है। देश की बदनामी करार देने लगती है।
ख़ैर यह आलेख ऐसे कथित राष्ट्रवादी तत्वों को जवाब देने के लिए नहीं लिखा गया है, क्योंकि वे सब जानते-बूझते करते हैं, इसलिए उन्हें समझाया नहीं जा सकता। लेकिन इनके प्रभाव में आकर बहुत से नौजवान, देश से वाकई प्यार करने वाले आम नागरिक भी ऐसा ही समझने लगते हैं और इसी शब्दावली का प्रयोग करने के लगते हैं।
यह आलेख उन्हीं लोगों के लिए है कि सवाल पूछने क्यों ज़रूरी हैं। यह किसी इस या उस पार्टी, नेता या सरकार का विरोध नहीं है, बल्कि यही सही राष्ट्रहित है क्योंकि अगर सवाल नहीं पूछे जाएंगे तो जवाब नहीं मिलेंगे और जवाब नहीं मिलेंगे तो कोई सुधार नहीं होगा, कोई बदलाव नहीं आएगा, कोई प्रगति नहीं होगी। यह नियम विज्ञान से लेकर राजनीति तक, क्लास रूम और घर से लेकर देश-समाज तक सब पर लागू होगा। इसलिए सवालों से नहीं बचना चाहिए, बल्कि उनका सामना करना चाहिए।
यह इसलिए भी क्योंकि सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी का प्रचार तंत्र इतना बड़ा और मजबूत होता है कि वो किसी भी प्रोपेगैंडा को सार्वजनिक तौर पर स्थापित कर देता है और उसे ही अंतिम सत्य बना देता है।
भारत-पाकिस्तान के बीच सीजफायर (संघर्ष विराम) होने पर मैंने एक सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा– अब तक संकटकाल था इसलिए सवाल नहीं पूछे, लेकिन अब सरकार से हिसाब लिया जाएगा कि क्या खोया–क्या पाया।
मेरे ही प्यारे और समझदार भांजे ने कहा– मामा क्या आपको सेना पर विश्वास नहीं है?
तब मैंने उसे बताया कि सवाल सेना से नहीं सरकार से पूछे जाएंगे।
भांजे ने कहा– सेना ने तो हिसाब दे ही दिया है कि क्या खोया-क्या पाया?
मैंने जवाब दिया कि बेटा सेना सच बताती है। लेकिन उतना ही जितना उसे सरकार की तरफ से कहा जाता है। और सेना अपने ऑपरेशन के बारे में सिर्फ तकनीकी सवालों का जवाब दे सकती है, राजनीतिक और नागरिक सवालों का नहीं। सेना प्रमुख और अन्य अफसर रिटायरमेंट के बाद ही किताबें लिखते हैं और बहुत से सच उजागर करते हैं, ज़रूरी सवाल उठाते हैं, जो वह सर्विस में रहते हुए नहीं उठा पाए।
अभी सीजफायर को लेकर कई पूर्व सेना प्रमुख ने भी सवाल उठाए हैं कि यह आख़िर किस कीमत पर किया गया है।
इसलिए यह सवाल तो बनता है कि– सेना ने अपना काम बखूबी किया, लेकिन क्या सरकार ने भी अपना काम बखूबी किया?
आप सभी जानते हैं कि सेना अपनी मर्ज़ी से न युद्ध का फैसला करती है, न युद्ध विराम का। यह राजनीतिक नेतृत्व यानी सरकार का काम है। इसलिए सवाल भी सरकार से पूछे जाएंगे क्योंकि किसी भी फ़ैसले के लिए वही प्रारंभिक और अंतिम तौर पर जिम्मेदार होती है।
सेना की कामयाबी का श्रेय अगर प्रधानमंत्री को मिलता है तो किसी भी नुकसान या नाकामी के लिए भी प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ही जिम्मेदार होती है। चाहे वो किसी भी पार्टी की हो।
आप इस उदाहरण से इसे बेहतर समझ सकते हैं– आपने देखा होगा कि सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत की हार या पीछे हटने के लिए आज तक उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराया जाता है। भाजपा और उसके समर्थक तो भारत-चीन विवाद और कश्मीर विवाद के लिए भी आज भी नेहरू जी को भर-भरकर गालियां देते हैं। वे तो आज की भी हर समस्या के लिए नेहरू को ही जिम्मेदार ठहराते हैं।
इसी तरह सन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान की सेना को सरेंडर कराने और पाकिस्तान के दो टुकड़े कराके बांग्लादेश के निर्माण की बात हो आज तक इंदिरा गांधी को याद किया जाता है। उनकी तारीफ की जाती है। और अब एक बार फिर इस सीजफायर के बाद इंदिरा गांधी को बहुत शिद्दत से याद किया जा रहा है।
इसलिए सेना की किसी भी कामयाबी या नाकामी की ज़िम्मेदार सरकार ही होती है। जब कामयाबी के लिए उसे श्रेय मिलता है तो किसी भी चूक या नाकामी के लिए भी उसी को जिम्मेदार ठहराया जाएगा और सवाल पूछे जाएंगे।
क्या अपनी सरकार को कटघरे में खड़ा करना, दुश्मन देश के हाथों में खेलना है?
युद्धकाल संयम का समय होता है, लेकिन शांतिकाल में ज़रूर सवाल उठाने चाहिए। ताकि सच सामने आने पर ही पुरानी गलतियों को सुधारा जा सकता है और नई सही कार्य नीति बनाई जा सकती है। झूठ या भ्रम में रहने से ख़ुद का भी नुकसान होता है और देश का भी।
कई विशेषज्ञों ने कहा कि अगर हमें पुलवामा हमले के बाद उठे सवालों का जवाब मिलता तो आज पहलगाम न होता।
हम आज तक 2019 में हुए पुलवामा हमले का पूरा सच नहीं जानते कि इतनी सैन्य निगरानी और सुरक्षा वाले जम्मू-कश्मीर के पुलवामा तक इतनी मात्रा में आरडीएक्स कैसे पहुंचा। कैसे एक कार सवार, सीआरपीएफ के क़ाफ़िले में घुसकर विस्फोट करने में कामयाब हुआ, जिसमें हमारे 40 जवान मारे गए। उसे किसने भेजा था, उसके आका कौन थे, उसके मददगार कौन थे।
कैसे सीआरपीएफ के इतने बड़े क़ाफ़िले (Convoy) को एक साथ, एक समय सड़क मार्ग से भेजा गया। क्यों नहीं तमाम इंटेलिजेंस रिपोर्ट के बाद भी उन्हें एयरलिफ़्ट कराया गया। उस समय वहां के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक ने भी ऐसे ही तमाम सवाल उठाए, लेकिन सरकार ने उनके जवाब नहीं दिए।
बालाकोट का भी हासिल क्या था, क्योंकि अब पहलगाम का हमला हो जाता है। विषयांतर न हो तो हमे याद रखना चाहिए कि हमारी सरकार ने नोटबंदी के जरिये भी आतंकवादियों की कमर तोड़ी थी।
पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर कार्रवाई की गई अच्छा है, लेकिन क्या इस सवाल का जवाब नहीं मिलना चाहिए कि कश्मीर के पहलगाम की बैसरन घाटी तक चार-पांच आतंकवादी हथियारों के साथ कैसे पहुंच गए। कैसे वहां एक भी सुरक्षाकर्मी और सेना का जवान क्यों नहीं मौजूद था। जबकि वहां हर किलोमीटर पर सुरक्षाबल तैनात रहते हैं।
इस नरसंहार को अंजाम देकर वे आतंकवादी कहां गायब हो गए और अभी तक उन्हें क्यों नहीं पकड़ा जा सका?
ये सब जो चूक हुई, उसके लिए कौन जिम्मेदार है। क्या हमारी सरकार को इसकी जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए।
आपको याद है कि 2008 में 26/11 मुंबई हमले के बाद हमारे मीडिया और भाजपा ने मनमोहन सरकार पर किस तरह के सवाल उठाए थे और उस समय तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल को इस्तीफ़ा देना पड़ा था।
क्या आप बताएंगे कि क्या उस समय सवाल पूछना गलत था!
और जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहलगाम हमले के बाद अपना सऊदी अरब का दौरा बीच में छोड़कर वापस आए तो क्यों नहीं कश्मीर या पहलगाम गए। क्यों नहीं पीड़ित परिवारों से मिले। क्यों नहीं सर्वदलीय बैठक में गए। बल्कि इसकी जगह उन्होंने बिहार में रैली करना क्यों चुना, जहां इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।
जब इस हमले के बाद पूरा देश एकजुट था और खासतौर पर कश्मीरियों ने पर्यटकों की मदद से लेकर आतंकवाद के खिलाफ एक अभूतपूर्व मिसाल पेश की तो क्यों नहीं मोदी जी या उनकी सरकार ने इसकी सार्वजनिक प्रशंसा की और कश्मीरियों और भारतीय मुसलमानों के खिलाफ चल रहे नफ़रती अभियान और हमलों को रोकने की पहल करते हुए क्यों नहीं एक स्पष्ट संदेश दिया कि ऐसे किसी भी अभियान या हमले को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और इसे भी देश के ख़िलाफ़ माना जाएगा। यही रवैया उन्होंने मणिपुर हिंसा को लेकर अपनाया और आज तक मणिपुर का दौरा नहीं किया।
क्यों नहीं मोदी जी एकतरफा संवाद में विश्वास रखते हैं और केवल चुनावी रैली, ‘मन की बात’ और राष्ट्र के नाम संबोधन करते हैं लेकिन ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद भी बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में नहीं जाते।
और अब जो अघोषित युद्ध और फिर युद्ध विराम हुआ है उसका हासिल क्या है। सेना ने आतंकवाद के खिलाफ अपना काम किया और अपना टारगेट हासिल किया लेकिन क्या इससे राजनीतिक और नागरिक हित भी पूरे हुए।
पहलगाम हमले में 26 पर्यटक (25 भारतीय नागरिक और एक नेपाली नागरिक) मारे गए। और अब तक की रिपोर्ट के अनुसार इस अघोषित जंग में 27 और भारतीय नागरिक मारे गए। सेना के 5 और बीएसएफ के 2 जवान शहीद हुए। क़रीब 60 लोग घायल हैं। LOC पर कितने घर ध्वस्त हो गए, कितने मवेशी मारे गए। इसका कुछ हिसाब नहीं है। कितने ही लोगों को अपने घरों से पलायन करना पड़ा।