भूख की आँच में झुलसती मानवता: क्या यही प्रगति है?

खाली थालियाँ, भरे गोदाम: कैसी यह दुनिया हमारी?
जब एक भूखे बच्चे की आँखों में रोटी का सपना धुँधला पड़ता है, तो मानवता की सारी चमक एक पल को थम सी जाती है। न चाँद की उड़ानें, न टेक्नोलॉजी की चकाचौंध, न ही गगनचुंबी इमारतें उस एक निवाले का मोल रखती हैं, जो किसी की भूख मिटा दे। हर साल 16 अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस यह कसक जगाता है—यह महज एक तारीख नहीं, बल्कि एक आह्वान है: एक ऐसी दुनिया बनाने का, जहाँ हर थाली में पौष्टिक भोजन हो और हर भविष्य सुरक्षित। 2025 की थीम, “बेहतर भोजन, बेहतर भविष्य के लिए एकजुटता,” हमें भोजन की उपलब्धता, गुणवत्ता और टिकाऊपन के लिए सामूहिक जिम्मेदारी का संदेश देती है। यह वह सपना है, जहाँ भूख सिर्फ एक भूली-बिसरी कहानी बन जाए।
1945 में संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की स्थापना ने विश्व खाद्य दिवस की नींव रखी, जिसका लक्ष्य था हर इंसान तक भोजन को गरिमा के साथ पहुँचाना। मगर 80 साल बाद भी यह मिशन अधूरा है। विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यूएफपी) के मुताबिक, 82.8 करोड़ लोग आज भी भूख की चपेट में हैं—यह आँकड़ा सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि उन माँओं की चुप्पी है, जो अपने बच्चों को भूखा सुलाती हैं; उन किसानों की पीड़ा है, जो दुनिया को खिलाते हुए खुद भूख से जूझते हैं। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि हर साल 1.3 अरब टन भोजन बर्बाद होता है—इतना कि यह पूरे उप-सहारा अफ्रीका को एक साल तक खिला सकता है। एक ओर खाली थालियाँ बेचैन हैं, तो दूसरी ओर डस्टबिन भोजन से अटे पड़े हैं। यह विडंबना हमसे सवाल करती है: क्या हमारी प्रगति अधूरी नहीं?
भारत में यह संकट और गहरा है। विश्व का दूसरा सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश होने के बावजूद, ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2024 में भारत 127 देशों में से 105वें पायदान पर है। यहाँ 19.4 करोड़ लोग भूखे हैं, और 43% बच्चे कुपोषण की मार झेल रहे हैं। “अन्नदाता” कहलाने वाला किसान कर्ज, बेमौसम बारिश और बाजार की अनिश्चितताओं में फँसकर अपने परिवार को दो जून की रोटी नहीं दे पाता। फिर भी, भारत की मिट्टी में वह शक्ति है, जो न सिर्फ देश, बल्कि पूरी दुनिया को खिला सकती है। 2025 की थीम हमें यही सिखाती है कि सरकार, किसान, वैज्ञानिक और समाज की एकजुटता ही वह पुल है, जो खेतों से थालियों तक भोजन पहुँचाएगा। हाथ में हाथ मिलाकर भूख को इतिहास बना दें।
भोजन का संकट केवल मात्रा का नहीं, बल्कि पहुँच, गुणवत्ता और समानता का है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि 2020 के बाद से खाद्य कीमतों में 20% की उछाल ने गरीब देशों में भोजन को और दुर्लभ बना दिया। भारत में राशन प्रणाली और सब्सिडी जैसी योजनाएँ हैं, मगर भ्रष्टाचार और अक्षमता के कारण लाखों जरूरतमंद भूखे रह जाते हैं। इससे भी गंभीर है “छिपी भूख” की मार—लाखों लोग भोजन तो खाते हैं, लेकिन पोषण की कमी के कारण बच्चों में स्टंटिंग और वेस्टिंग जैसे रोग बढ़ रहे हैं। 2025 की थीम “बेहतर भोजन” यही माँग करती है कि हम केवल पेट भरने नहीं, बल्कि हर व्यक्ति तक पौष्टिक, संतुलित आहार पहुँचाने पर ध्यान दें, जो उनकी शारीरिक और मानसिक सेहत को संवारे।
2025 की थीम पर्यावरण और भोजन के अटूट रिश्ते को भी उजागर करती है। जलवायु परिवर्तन, मिट्टी की घटती उर्वरता, और जल संसाधनों का दोहन हमारी खाद्य प्रणाली को कमजोर कर रहे हैं। एफएओ के मुताबिक, विश्व का 70% जल कृषि में खर्च होता है, जिसका बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है। सतत कृषि, जैविक खेती, ड्रिप इरिगेशन, और वर्षा जल संचय अब जरूरत बन चुके हैं। हमें स्थानीय, मौसमी भोजन को बढ़ावा देना होगा, ताकि आयात कम हो और किसानों को लाभ मिले। साथ ही, भंडारण और परिवहन में होने वाली बर्बादी को रोकने के लिए खाद्य आपूर्ति श्रृंखला को मजबूत करना होगा। यह थीम हमें सिखाती है कि बेहतर भविष्य तभी संभव है, जब हम प्रकृति के साथ कदम मिलाएँ।
भारत में भोजन केवल भौतिक जरूरत नहीं, बल्कि संस्कृति और प्रेम का प्रतीक है। “अन्नपूर्णा” का रूप लिए भोजन गाँवों में मेहमानों को खिलाने का गर्व और एकता का संदेश देता है। मगर आधुनिक उपभोक्तावाद ने हमें फास्ट फूड और पैकेज्ड भोजन की चमक में उलझा दिया, जबकि हम अपनी जड़ों बाजरा, ज्वार, रागी जैसे पौष्टिक और टिकाऊ अनाजों को भूलते जा रहे हैं। “बेहतर भोजन” हमें अपनी परंपराओं की ओर लौटने और स्थानीय, पर्यावरण-अनुकूल भोजन को अपनाने का आह्वान करता है, जो न केवल सेहत दे, बल्कि धरती को भी बचाए।
भारत सरकार की योजनाएँ—राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013, मिड-डे मील, पोषण अभियान, और प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना—भूख और कुपोषण से लड़ने की दिशा में अहम कदम हैं। मगर इनकी सफलता समाज की भागीदारी पर टिकी है। भारत में हर साल 67 मिलियन टन भोजन (अनुमानित कीमत लगभग ₹92,000 करोड़) बर्बाद होता है—यह एक त्रासदी है। जरूरत के हिसाब से खाना खरीदना, बचे हुए भोजन को दान करना, और सामुदायिक रसोईघरों में योगदान देना जैसे छोटे कदम बड़े बदलाव ला सकते हैं। “हाथ में हाथ” मिलाकर भूख को हराएँ और हर थाली को समृद्ध करें।
तकनीक भूख के खिलाफ एक शक्तिशाली हथियार बन सकती है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), ड्रोन, और सैटेलाइट्स के जरिए फसलों की निगरानी, सटीक मौसम भविष्यवाणी, और स्मार्ट आपूर्ति श्रृंखलाएँ भोजन की बर्बादी को कम कर रही हैं। मगर यह ताकत तभी सार्थक है, जब यह भारत के 86% छोटे और सीमांत किसानों तक पहुँचे, जिनके पास आधुनिक संसाधनों की कमी है। यदि हम इन किसानों को तकनीक, प्रशिक्षण, और बाजार से जोड़ सकें, तो खाद्य सुरक्षा का सपना हकीकत में बदल सकता है। यह एकजुटता ही खेतों से थालियों तक भोजन का सफर सुनिश्चित करेगी।
विश्व खाद्य दिवस हमें सिखाता है कि भूख केवल पेट की नहीं, आत्मा की भी होती है। किसी भूखे को भोजन देना सिर्फ उसका पेट भरना नहीं, बल्कि उसकी गरिमा और उम्मीद को पोषित करना है। “हाथ में हाथ” का मतलब है कि यह जिम्मेदारी हम सबकी है। हर थाली में अन्न का होना महज एक लक्ष्य नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक जवाबदेही है। इस विश्व खाद्य दिवस पर संकल्प लें कि हम भोजन की बर्बादी रोकेंगे, जरूरतमंदों के साथ अन्न बाँटेंगे, और एक ऐसी दुनिया बनाएँगे जहाँ भूख सिर्फ एक भूली-बिसरी कहानी हो। क्योंकि जब हर चेहरे पर भोजन की मुस्कान खिलेगी, तभी हमारी धरती सही मायनों में समृद्ध और शांतिपूर्ण होगी।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत