एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और मोहन भागवत


आलेख : सवेरा, अनुवाद : संजय पराते

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़(Former Chief Justice of India D.Y. Chandrachud) द्वारा हाल ही में ऑनलाइन पोर्टल न्यूज़लॉन्ड्री को दिए गए साक्षात्कार में उनके विचारों के कुछ सनसनीखेज और भयावह खुलासे हुए हैं। स्वाभाविक रूप से इससे पहले, पूर्व न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति-पश्चात के विचारों के बारे जैसी हलचल मची है, वह शायद ही कभी देखी गई है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके बयान न केवल उनकी वास्तविक सोच को उजागर करते हैं, बल्कि हाल के दिनों में भारत को परेशान करने वाले सबसे भड़काऊ और विभाजनकारी मुद्दों में से एक -- धार्मिक संघर्ष और उसका इतिहास, खासकर पूजा स्थलों के संबंध में -- पर लगातार बन रहे सार्वजनिक विमर्श को भी बल देते हैं। इसलिए चंद्रचूड़ ने जो कहा है, उसे समझना ज़रूरी है।





इंटरव्यू के क्लिप के अनुसार, न्यूज़लॉन्ड्री के श्रीनिवासन जैन ने चंद्रचूड़ से इस धारणा पर टिप्पणी करने को कहा कि 2019 का अयोध्या फ़ैसला सिर्फ़ इसलिए हिंदू पक्ष के पक्ष में गया, क्योंकि उन्होंने 1949 में रामलला की मूर्ति को अवैध रूप से भीतरी प्रांगण में रखकर हंगामा किया और अपवित्रता में लिप्त रहे, जबकि मुस्लिम पक्ष ने बाहरी प्रांगण पर हिंदुओं के कब्ज़े का कोई विरोध नहीं किया था। इस पर चंद्रचूड़ ने काफ़ी भावुक होकर कहा, "जब आपने कहा कि हिंदू ही भीतरी प्रांगण को अपवित्र कर रहे थे, तो अपवित्रता के मूल कृत्य -- मस्जिद के निर्माण -- के बारे में क्या? आप वो सब भूल गए, जो हुआ था? हम भूल गए कि इतिहास में क्या हुआ था?"

सीधे शब्दों में कहें तो, पूर्व मुख्य न्यायाधीश कह रहे हैं कि मस्जिद का निर्माण (जिसके लगभग पाँच शताब्दियों पहले 1528-29 में किए जाने की रिपोर्ट है) ही अपवित्र कृत्य था। यह अपवित्र काम क्यों है? क्योंकि, उनका आशय यह है कि यह उसी स्थान पर बनाई गई थी, जहां हिंदुओं की मान्यता के अनुसार भगवान राम का जन्म हुआ था, और जहां कभी एक मंदिर हुआ करता था।










सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 2019 के फैसले में दर्ज किया था कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की जांच से पता चला था कि मस्जिद के नीचे एक हिंदू धार्मिक स्थल के अवशेष थे, लेकिन उसने इन अवशेषों को 12वीं शताब्दी का पाया था। न्यायालय ने कहा था कि मंदिर के अस्तित्व और मस्जिद के निर्माण के बीच 400 वर्षों के अंतराल का कोई स्पष्टीकरण नहीं है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह स्थापित नहीं हुआ कि मस्जिद का निर्माण मंदिर को नष्ट करके किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के 1045 पृष्ठों के फैसले का प्रासंगिक अंश इस प्रकार है :






“II. एएसआई रिपोर्ट में हिंदू धार्मिक मूल की एक अंतर्निहित संरचना, जो बारहवीं शताब्दी के मंदिर वास्तुकला का प्रतीक है, के अवशेषों के बारे में संदर्भ के निष्कर्षो के निम्नलिखित चेतावनियों के साथ पढ़ा जाना चाहिए :

(i) जबकि एएसआई रिपोर्ट में पहले से मौजूद संरचना के खंडहरों का अस्तित्व पाया गया है, रिपोर्ट में यह नहीं बताया गया है : (क) पहले से मौजूद संरचना के विनाश का कारण ; और (ख) क्या मस्जिद के निर्माण के उद्देश्य से पहले की संरचना को ध्वस्त किया गया था।

(ii) चूँकि एएसआई की रिपोर्ट में अंतर्निहित संरचना की तिथि बारहवीं शताब्दी बताई गई है, इसलिए अंतर्निहित संरचना और मस्जिद के निर्माण के बीच लगभग चार शताब्दियों का समय अंतराल है। लगभग चार शताब्दियों की अंतराल अवधि में क्या घटित हुआ, यह समझाने के लिए कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है ;

(iii) एएसआई की रिपोर्ट यह निष्कर्ष नहीं निकालती कि (पूर्ववर्ती संरचना की नींव पर मस्जिद के निर्माण के अलावा) मस्जिद के निर्माण के लिए पहले से मौजूद संरचना के अवशेषों का इस्तेमाल किया गया था ; और

(iv) मस्जिद के निर्माण में जिन स्तंभों का इस्तेमाल किया गया था, वे काले कसौटी पत्थर के स्तंभ थे। एएसआई को ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है, जिससे पता चले कि मस्जिद के नीचे की संरचना में ये कसौटी स्तंभ खुदाई के दौरान मिले स्तंभों के आधार से संबंधित हैं।

III. एएसआई द्वारा प्राप्त पुरातात्विक निष्कर्षों के आधार पर कानूनी तौर पर स्वामित्व का निर्धारण नहीं किया जा सकता। बारहवीं शताब्दी, जिसमें अंतर्निहित संरचना का काल बताया गया है, और सोलहवीं शताब्दी में मस्जिद के निर्माण के बीच, चार शताब्दियों का अंतराल है। बारहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच मानव इतिहास के क्रम से संबंधित कोई साक्ष्य अभिलेखों में प्रस्तुत नहीं किया गया है। इस प्राचीनता के मामले में (i) अंतर्निहित संरचना के विनाश के कारण; और (ii) क्या मस्जिद के निर्माण के लिए पहले से मौजूद संरचना को ध्वस्त किया गया था, इस पर कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। भूमि के स्वामित्व का निर्णय स्थापित कानूनी सिद्धांतों और एक दीवानी मुकदमे को नियंत्रित करने वाले साक्ष्य मानकों के आधार पर किया जाना चाहिए। ['अयोध्या अंतिम निर्णय' से उद्धरण ; अध्याय पी -- स्वामित्व पर विश्लेषण ; अनुच्छेद 788 ; पृष्ठ 906-907]




मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ सुप्रीम कोर्ट के उन पांच न्यायाधीशों में से एक थे, जिन्होंने इस फैसले को साथ में लिखा था। इसलिए, उन्हें न केवल उपरोक्त निष्कर्ष की जानकारी है, बल्कि वे इसके पक्षकार भी हैं। फिर भी अब वे दावा करते हैं कि अपवित्रीकरण का 'मूल' कृत्य बाबरी मस्जिद का निर्माण ही था।

इतना ही नहीं, वह उन लोगों की भी आलोचना करते हैं जो संपूर्ण इतिहास को नहीं देखते, बल्कि अपनी सुविधानुसार कुछ अंशों या प्रकरणों का चयन कर लेते हैं।

उन्होंने अपने साक्षात्कार में कहा, "अब, जब आप स्वीकार करते हैं कि इतिहास में ऐसा हुआ है, और हमारे पास पुरातात्विक साक्ष्य के रूप में सबूत मौजूद हैं, तो आप अपनी आंखें कैसे बंद कर सकते हैं? तो, इनमें से कई टिप्पणीकार, जिनका आपने उल्लेख किया है, वास्तव में इतिहास के बारे में एक चयनात्मक दृष्टिकोण रखते हैं, इतिहास में एक निश्चित अवधि के बाद जो हुआ है, उसके साक्ष्य को नजरअंदाज करते हैं और ऐसे साक्ष्य की ओर देखना शुरू करते हैं, जो ज्यादा तुलनात्मक है।"

पूर्व मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के अनुसार इतिहास

इस प्रकार, पूर्व मुख्य न्यायाधीश, जो एक प्रकांड और विद्वान न्यायाधीश माने जाते हैं, इस बात की वकालत कर रहे हैं कि क्या सही था और क्या गलत, यह स्थापित करने के लिए इतिहास को यथासंभव पीछे तक खंगाला जाना चाहिए। विशिष्ट मुद्दों के निर्धारण के लिए स्वामित्व, प्रतिकूल कब्जा आदि से संबंधित कानूनों सहित, विधि के नियमों का उपयोग किया जा सकता है, लेकिन -- चंद्रचूड़ का तर्क है कि -- व्यापक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए।




इस व्यापक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखने का एक परिणाम यह हो सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India)ने अंततः विवादित भूमि का स्वामित्व हिंदू पक्ष को दे दिया, इस तथ्य के आधार पर कि विवादित क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर उनका कब्ज़ा था, और उन्होंने मुस्लिमों के घुसपैठ का लगातार विरोध किया था। यह तब हुआ, जब फैसले में बार-बार यह कहा गया कि अतीत में मुस्लिम पक्ष को उनके पूजा स्थल से वंचित करके उनके साथ अन्याय किया गया था, और 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद का निर्दयतापूर्वक विध्वंस अवैध था। फैसले से उनके कुछ अंश यहां दिए जा रहे हैं :

“मस्जिद का विध्वंस और इस्लामी ढांचे का विनाश कानून के शासन का घोर उल्लंघन था ;” (पृष्ठ 913).





“1934 में मस्जिद को नुकसान पहुँचने और 1949 में उसको अपवित्र करने के कारण मुस्लिमों को वहाँ से निकलना पड़ा और अंततः 6 दिसंबर 1992 को उसका विध्वंस करना, कानून के शासन का गंभीर उल्लंघन था ;” (पृ.914).

"22/23 दिसंबर 1949 की दरम्यानी रात को, जब हिंदू मूर्तियों की स्थापना करके मस्जिद को अपवित्र किया गया, मुस्लिमों को इबादत और कब्जे से वंचित होना पड़ा। उस अवसर पर मुस्लिमों की बेदखली किसी वैध प्राधिकारी द्वारा नहीं, बल्कि एक ऐसे कृत्य के माध्यम से की गई थी, जो उन्हें उनके इबादत स्थल से वंचित करने के लिए सोचा गया था। 1898 की दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के तहत कार्यवाही शुरू होने और आंतरिक प्रांगण की कुर्की के बाद, एक रिसीवर नियुक्त होने के बाद, हिंदू मूर्तियों की पूजा की अनुमति दी गई। मुकदमे के लंबित रहने के दौरान, एक सार्वजनिक इबादत स्थल को नष्ट करने की एक सोची-समझी कार्रवाई में मस्जिद के पूरे ढांचे को गिरा दिया गया। मुस्लिमों को एक ऐसी मस्जिद से गलत तरीके से वंचित किया गया है, जिसका निर्माण 450 साल से भी पहले हुआ था।" (पृष्ठ 921).





हिंदू पक्ष के कृत्यों को कानून का घोर उल्लंघन बताने और फिर भी उनके निरंतर कब्जे (भले ही वह अवैध हो) के आधार पर उन्हें भूमि का स्वामित्व प्रदान करने का यह गूढ़ विरोधाभास ही इस फैसले की विशेषता है। चंद्रचूड़ जिस व्यापक परिप्रेक्ष्य की बात करते हैं, शायद उसने इस विचित्र न्याय में योगदान दिया। न्यायालय ने अतीत के इस अन्याय के मुआवजे के रूप में मुस्लिम पक्ष को एक अलग स्थान पर 5 एकड़ जमीन प्रदान की है और कहा है कि "न्याय नहीं होगा, यदि न्यायालय उन मुस्लिमों के अधिकारों की अनदेखी करता है, जिन्हें मस्जिद के ढांचे से ऐसे तरीकों से वंचित किया गया है, जो कानून के शासन के लिए प्रतिबद्ध एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में नहीं अपनाए जाने चाहिए थे।" (पृष्ठ 922-23).

अब, मथुरा और काशी?(Mathura and Kashi)





कुछ हफ़्ते पहले, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत(RSS chief Mohan Bhagwat) ने दिल्ली में एक बैठक में घोषणा की थी कि वाराणसी/काशी में काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि मंदिर से सटी शाही ईदगाह मस्जिद परिसर ऐसे मुद्दे हैं, जो अभी भी लंबित हैं। उन्होंने कहा था कि एक संगठन के रूप में आरएसएस इन्हें विशुद्ध रूप से हिंदू धार्मिक स्थल के रूप में स्थापित करने के किसी भी आंदोलन में शामिल नहीं होगा, लेकिन आरएसएस के सदस्य इसमें शामिल होने के लिए स्वतंत्र हैं। आरएसएस के सदस्य भाजपा, विश्व हिंदू परिषद और कई अन्य संगठनों का नेतृत्व करते हैं। इसलिए, इन विभाजनकारी आंदोलनों को हरी झंडी मिल गई है। ऐतिहासिक "मौलिक अपवित्रता" के बारे में चंद्रचूड़ का बयान निश्चित रूप से आरएसएस कार्यकर्ताओं के लिए इसमें उपयोगी साबित होगा।







ऐसा लगता है कि इस तरह के कदमों को अवैध घोषित किया जाना चाहिए क्योंकि पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम (पिडब्लूए), 1991, स्वतंत्रता के समय प्राप्त यथास्थिति पर रोक लगाता है। लेकिन यहां भी चंद्रचूड़ नए दावों के द्वार खोलने में मददगार रहे हैं। मुख्य न्यायाधीश के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने 2023 में ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वेक्षण करने की अनुमति दी थी, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि क्या मस्जिद एक नष्ट हिंदू मंदिर पर बनाई गई थी, जैसा कि हिंदू याचिकाकर्ताओं ने दावा किया था। इससे पहले, 2022 में, चंद्रचूड़ ने ज्ञानवापी विवाद की सुनवाई करते हुए मौखिक रूप से कहा था कि पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र का पता लगाना पूजा स्थल अधिनियम के तहत वर्जित नहीं है। ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण में, एएसआई ने दावा किया था कि उसे मस्जिद के नीचे एक हिंदू मंदिर के अवशेष मिले हैं। इस आदेश के बाद मथुरा, संभल, अजमेर, भोजशाला आदि कम से कम 17 स्थानों पर तथाकथित विवादित स्थलों पर सर्वेक्षण की मांग की गई, तथा कुछ स्थानों पर हिंसा भी भड़क उठी।




न्यूज़लॉन्ड्री के साथ साक्षात्कार में इस बारे में पूछे जाने पर, चंद्रचूड़ ने कहा कि पिडब्लूए के यथास्थिति संबंधी प्रावधान में दो अपवाद थे : पहला, अयोध्या विवाद (जो बहुत पहले से चल रहा था) और दूसरा, ऐसे मामले, जहाँ यह निर्धारित किया जाना था कि कोई स्थल पुरातात्विक महत्व का है या नहीं। दूसरे मामले में, अदालतों को इस प्रकार के मामले की जांच करने का अधिकार था। इस प्रकार, उन्होंने पिडब्लूए में ही एक छोटी सी दरार डाल दी है : अदालत सर्वेक्षण का आदेश दे सकती है, और फिर इतिहास और आस्था, और पूरा 'व्यापक परिप्रेक्ष्य' सामने आ जाएगा।

अयोध्या और ज्ञानवापी मामलों के फैसलों के बाद पिछले कुछ वर्षों से कथित ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने की अनेकों मांगों का संगम, आरएसएस द्वारा इसे हरी झंडी दिखाना और अब चंद्रचूड़ द्वारा इसका विद्वत्तापूर्ण औचित्य प्रतिपादन, ये सब मिलकर एक ऐसा ज़बरदस्त मिश्रण तैयार कर रहे हैं, जो एक चिंताजनक भविष्य की ओर इशारा करता है। ऐसे समय में जब मोदी सरकार बेरोजगारी, विनिर्माण क्षेत्र के विकास दर में ठहराव, महंगाई और राज्य सरकार के घटते संसाधनों जैसे गंभीर आर्थिक संकटों से निपटने में लाचार है, ये विभाजनकारी मांगें शायद लोगों का ध्यान और ऊर्जा भटकाने का काम करेंगी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)

Related Articles
Next Story
Share it