व्हाट्सएप पर फेक न्यूज की बाढ़ ने 2018-19 में लिंचिंग की आग भड़काई

भारत के डेटा पर विदेशी पहरे: यह कैसी आज़ादी?
डेटा संप्रभुता की पुकार: अब की बार डिजिटल आज़ादी
भारत का डिजिटल परिदृश्य आज एक दोमुंही तलवार सा है। एक ओर, स्मार्टफोन क्रांति ने करोड़ों लोगों को इंटरनेट की सैर कराई, आधार ने डिजिटल पहचान को अटल बनाया, और यूपीआई ने लेन-देन को इतना सरल किया कि उंगलियों के इशारे पर अर्थव्यवस्था नाच उठी। मगर दूसरी ओर, यह डिजिटल उफान विदेशी दिग्गजों—गूगल, फेसबुक, अमेज़न, माइक्रोसॉफ्ट—के लिए डेटा की खुली लूट का अखाड़ा बन गया है। यह 'डेटा कॉलोनियलिज़्म' पुराने औपनिवेशिक युग की छाया है, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के संसाधनों को लूटती थी। आज ये कंपनियां भारतीय यूजर्स के डेटा को कच्चे माल की तरह खनन कर रही हैं। संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (यूएनसीटीएडी, 2021) की रिपोर्ट चेताती है कि विकासशील देशों से निकलने वाले 80% से अधिक डेटा विकसित देशों के सर्वरों में कैद हो रहा है, जो भारत जैसे देशों के लिए डिजिटल गुलामी का खतरा बन रहा है।
इस लूट की जड़ें गहरे पैठ चुकी हैं। हर भारतीय जो फेसबुक पर पोस्ट डालता है, गूगल पर सर्च करता है, या अपनी लोकेशन साझा करता है, उसका हर क्लिक, हर पसंद, हर कदम डेटा के विशाल भंवर में समा जाता है। यह डेटा केवल विज्ञापनों की भट्टी में नहीं झोंका जाता, बल्कि एल्गोरिदम को प्रशिक्षित करने, बाजार की भविष्यवाणी करने, और यहाँ तक कि राजनीतिक हवाओं को मोड़ने में भी इस्तेमाल होता है। 2018 का कैम्ब्रिज एनालिटिका कांड इसका ज्वलंत सबूत है, जब फेसबुक के 5 करोड़ यूजर्स—लाखों भारतीयों समेत—का डेटा बिना सहमति चुराकर अमेरिकी चुनावों में हथियार बनाया गया। 2020 का पेगासस स्पाइवेयर घोटाला और भी भयावह था, जब इजरायली एनएसओ ग्रुप के सॉफ्टवेयर ने भारतीय नेताओं, पत्रकारों और नागरिकों के फोन हैक किए। विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ, 2022) की रिपोर्ट 'डेटा कोलोनियलिज़्म इन द ग्लोबल साउथ' में चेतावनी दी गई है कि एशियाई देशों का डेटा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की 'एक्सट्रैक्टिव इकोनॉमी' का शिकार बन रहा है—डेटा लूटा जा रहा है, मगर उसका मूल्य भारत को नहीं मिल रहा।
भारत का डिजिटल (Digital IndiaDigital Data)परिदृश्य आर्थिक लूट का नया रणक्षेत्र बन चुका है। 85 करोड़ से अधिक इंटरनेट यूजर्स के साथ भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा डिजिटल बाजार है, मगर इसका 60-70% डेटा अमेरिका और यूरोप के सर्वरों—एडब्ल्यूएस, गूगल क्लाउड—के हवाले है। स्टैनफर्ड डिजिटल इकॉनमी लैब (2021) के मुताबिक, 2025 तक वैश्विक डेटा अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर की हो सकती है, लेकिन भारत जैसे विकासशील देशों को इसका महज 10-15% ही नसीब होगा। गूगल हर साल भारत से अरबों डॉलर की कमाई करता है, मगर टैक्स के नाम पर चंद टुकड़े देता है। 2017 में यूरोप में गूगल पर 2.4 बिलियन यूरो (2 बिलियन पाउंड) का एंटीट्रस्ट जुर्माना लगा था, लेकिन भारत में ऐसी कार्रवाई नाकाफी रही। डेटा लोकलाइजेशन की कमजोर नीतियाँ इसकी जड़ में हैं। 2019 के डेटा प्रोटेक्शन बिल में लोकलाइजेशन का वादा था, लेकिन 2023 का डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट (डीपीडीपी) इसे वैकल्पिक बनाकर विदेशी कंपनियों को डेटा लूट की खुली छूट दे गया। यह न केवल आर्थिक चोट है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी सवाल खड़े करता है—2021 में टिकटॉक जैसे चीनी ऐप्स के डेटा बीजिंग भेजने का खुलासा इसका सबूत है।
सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर यह डिजिटल उपनिवेशवाद भारत को फिर से गढ़ रहा है। विदेशी एल्गोरिदम हमारी सोच को बांध रहे हैं। व्हाट्सएप पर फेक न्यूज की बाढ़ ने 2018-19 में लिंचिंग की आग भड़काई, जैसा एमनेस्टी इंटरनेशनल ने रेखांकित किया। गूगल सर्च में 'भारतीय' टाइप करें, तो नकारात्मक स्टिरियोटाइप्स की बौछार होती है। प्रोफेसर निकलास थॉर्नबोरो (यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्टर्न ओंटारियो, 2017) की 'डेटा कॉलोनियलिज़्म' (Data Colonialism)अवधारणा इसे नया साम्राज्यवाद बताती है, जहां डेटा 'नया तेल' है, मगर इसका मालिक कोई और। आधार डेटा का दुरुपयोग इसका ज्वलंत उदाहरण है—2018 में खबर आई कि ₹500 में 10 लाख आधार रिकॉर्ड्स तक अनधिकृत पहुँच बिक रही थी। यूआईडीएआई के दावों के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने आधार को सीमित किया। कोविड-19 के दौरान आरोग्य सेतु ऐप ने भी डेटा गोपनीयता पर सवाल उठाए, जब इसका डेटा विदेशी सर्वरों पर पाया गया। यह डिजिटल गुलामी भारत की आत्मनिर्भरता को चुनौती है।
डिजिटल लूट के इस अंधेरे में आशा की किरणें भी झिलमिलाती हैं। भारत सरकार ने डेटा सॉवरेन्टी की दिशा में कदम उठाए हैं—2022 में RBI ने पेमेंट डेटा को भारत में रखने का फरमान सुनाया, और DPDP एक्ट ने सहमति-आधारित डेटा प्रोसेसिंग को अनिवार्य किया। मगर इन कदमों का कार्यान्वयन लचर है। विशेषज्ञ चेताते हैं कि सख्त डेटा लोकलाइजेशन नीतियाँ, माईटी (मिनिस्ट्री ऑफ़ इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी) जैसे स्वदेशी क्लाउड समाधान, और मजबूत एआई शासन के बिना डिजिटल स्वायत्तता सपना ही रहेगा।
यूरोपीय संघ (ईयू) का जनरल डाटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (जीडीपीआर) मॉडल प्रेरणा देता है, जहां डेटा उल्लंघन पर 4% वैश्विक टर्नओवर का जुर्माना है। जियो और पेटीएम जैसे स्टार्टअप्स ने स्वदेशी डेटा सेंटर बनाकर हौसला दिखाया, लेकिन विदेशी दिग्गजों का वर्चस्व अटल है। युनेस्को की 2023 रिपोर्ट डिजिटल कोलोनियलिज़्म एंड कल्चरल सॉवरेन्टी ' की सलाह है कि वैश्विक दक्षिण के देश डेटा को 'साझा विरासत' मानें और उस पर सामूहिक नियंत्रण स्थापित करें।
यह लड़ाई अब केवल तकनीकी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आर्थिक है। डेटा कॉलोनियलिज़्म को रोकने के लिए जागरूकता, कठोर कानून और तकनीकी स्वावलंबन जरूरी हैं। यदि भारत अपने डेटा की बागडोर नहीं संभालेगा, तो हमारी पहचान, अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र विदेशी सर्वरों की कठपुतली बन जाएंगे। विश्व बैंक की 2024 रिपोर्ट का अनुमान है कि डेटा सॉवरेन्टी अपनाने वाले देशों की जीडीपी 2-3% बढ़ सकती है। यह भारत के लिए सुनहरा अवसर है। समय आ गया है कि हम डिजिटल आजादी की जंग लड़ें, जैसी स्वतंत्रता संग्राम में लड़ी थी। वरना इतिहास फिर दोहराएगा—इस बार डिजिटल सर्वरों की जंजीरों में।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत