अमेरिकी टैरिफ? भारत के सामने आर्थिक धर्मसंकट

रियायती तेल या अमेरिकी टैरिफ? भारत के सामने आर्थिक धर्मसंकट

रूसी हथियारों से अमेरिकी टैक्स तक: भारत के लिए दोधारी चुनौती

भारत और रूस का रिश्ता मात्र साझेदारी नहीं, बल्कि विश्वास और सामरिक एकजुटता का अटूट बंधन है, जो दशकों की कठिन कसौटियों पर खरा उतरा है। यह रिश्ता न केवल हथियारों और तेल के व्यापार तक सीमित है, बल्कि भारत की रक्षा ताकत, ऊर्जा सुरक्षा और भू-राजनीतिक संतुलन का मजबूत आधार है। लेकिन अब यह बंधन एक अभूतपूर्व तूफान का सामना कर रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति की कठोर चेतावनी ने भारत को दोराहे पर ला खड़ा किया है—रूस से तेल और सैन्य उपकरणों की खरीद की "कीमत" चुकाने की धमकी दी गई है। एक अगस्त से भारत के हर निर्यात पर 25 प्रतिशत टैरिफ (US tariff)और रूस से सैन्य खरीद के लिए अतिरिक्त "पेनल्टी" का ऐलान हुआ है। अमेरिका का तर्क है कि भारत का रूस के साथ व्यापार यूक्रेन युद्ध को बढ़ावा दे रहा है। यह धमकी ऐसे नाजुक समय में आई है, जब भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक समझौते की बातचीत महीनों से अधर में लटकी हुई है। सवाल यह नहीं कि भारत क्या कदम उठाएगा; सवाल यह है कि क्या भारत इस बाहरी दबाव के सामने झुकेगा, या अपने राष्ट्रीय हितों को ढाल बनाकर रूस के साथ अपने ऐतिहासिक रिश्ते को अडिग रखेगा?

भारत की सैन्य शक्ति का आधार रूस से प्राप्त तकनीक और उपकरणों पर टिका है। भारतीय सेना के 60 से 70 प्रतिशत उपकरण—जैसे टैंक, फाइटर जेट, पनडुब्बियाँ और मिसाइल सिस्टम—सोवियत या रूसी मूल के हैं। 2023 के स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) के आँकड़ों के अनुसार, भारत के रक्षा आयात में रूस की हिस्सेदारी लगभग 45 प्रतिशत है। मिग-29, सुखोई-30 एमकेआई और टी-90 टैंक जैसे उपकरण भारत की रक्षा रीढ़ की हड्डी हैं। इनका रखरखाव, स्पेयर पार्ट्स और उन्नयन रूस के सहयोग के बिना असंभव है। भले ही भारत रूस से नए उपकरण खरीदना बंद कर दे, अगले दशक तक मौजूदा उपकरणों को चालू रखने के लिए रूसी सहायता अनिवार्य रहेगी। यह निर्भरता केवल तकनीकी नहीं, बल्कि भारत की सामरिक संप्रभुता का आधार है।

रूस भारत के लिए केवल रक्षा साझेदार नहीं, बल्कि ऊर्जा सुरक्षा का भी मज़बूत स्तंभ है। 2024 में भारत ने रूस से प्रतिदिन 1.7 मिलियन बैरल कच्चा तेल आयात किया, जो उसकी कुल तेल खपत का 35 प्रतिशत है। रियायती दरों पर उपलब्ध यह तेल भारत की अर्थव्यवस्था को स्थिर रखता है और मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाता है। यदि भारत रूस से तेल आयात बंद करता है, तो उसे खाड़ी देशों से महंगे दामों पर तेल खरीदना पड़ेगा, जिससे व्यापार घाटा बढ़ेगा और आम नागरिकों पर आर्थिक बोझ पड़ेगा। यह भारत की आर्थिक स्थिरता के लिए गंभीर चुनौती होगा।

इस धमकी का भू-राजनीतिक आयाम और भी जटिल है। रूस से दूरी भारत के लिए सामरिक दृष्टिकोण से घातक सिद्ध हो सकती है। रूस के कुल तेल निर्यात का 47 प्रतिशत पहले ही चीन को जाता है, और यह हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। यदि भारत रूस से पीछे हटता है, तो रूस की चीन पर निर्भरता और गहरी होगी, जो भारत के हितों के लिए अस्वीकार्य है। भारत पहले ही चीन और पाकिस्तान की बढ़ती साझेदारी से जूझ रहा है। रूस और पाकिस्तान के बीच हाल के वर्षों में बढ़ते सैन्य और आर्थिक संबंध, जैसे 2016 से शुरू हुए संयुक्त सैन्य अभ्यास, भारत के लिए चिंता का विषय हैं। यदि रूस चीन और पाकिस्तान के और करीब जाता है, तो भारत का क्षेत्रीय संतुलन खतरे में पड़ सकता है, जिसके दीर्घकालिक परिणाम भारत की सुरक्षा और सामरिक स्थिरता के लिए विनाशकारी होंगे।

भारत और रूस का रिश्ता केवल हथियारों और तेल तक सीमित नहीं, बल्कि यह रणनीतिक और आर्थिक सहयोग का एक गहरा बंधन है। रूस चाबहार बंदरगाह और अंतरराष्ट्रीय उत्तरी-दक्षिणी परिवहन कॉरिडोर (आईएनएसटीसी) जैसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स में भारत का अहम साझेदार है। चाबहार बंदरगाह भारत को मध्य एशिया और यूरोप तक व्यापारिक और सामरिक पहुँच प्रदान करता है, जो उसकी भू-राजनीतिक रणनीति का आधार है। यदि भारत रूस से दूरी बनाता है, तो ये परियोजनाएँ जोखिम में पड़ सकती हैं, जिससे न केवल भारत की आर्थिक महत्त्वाकांक्षाओं को गहरा झटका लगेगा, बल्कि क्षेत्र में उसका प्रभाव और प्रभुत्व भी कमजोर होगा।

भारत और अमेरिका के बीच संबंध जटिल और बहुआयामी हैं। ऐतिहासिक रूप से, भारत में अमेरिका के प्रति गहरा अविश्वास रहा है। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन किया, और 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद भारत पर कठोर प्रतिबंध लगाए। इसके विपरीत, रूस ने न केवल भारत का साथ दिया, बल्कि संयुक्त राष्ट्र में उसके पक्ष में वीटो शक्ति का उपयोग किया। रूस की नीतियों में 2000 के बाद से उल्लेखनीय निरंतरता रही है, जबकि अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के साथ नीतियाँ अक्सर बदलती रहती हैं। 2021 में अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की अचानक वापसी इसका स्पष्ट उदाहरण है। भारत ने वहाँ 3 अरब डॉलर से अधिक का निवेश किया था, लेकिन तालिबान के सत्ता में लौटने से उसकी परियोजनाएँ संकट में पड़ गईं। यह घटना भारत में इस धारणा को और पुष्ट करती है कि अमेरिका अपने सहयोगियों के हितों की रक्षा में विश्वसनीय नहीं है।

अमेरिकी सैन्य उपकरणों को भारतीय सेना में एकीकृत करना चुनौतीपूर्ण और जटिल प्रक्रिया है। भारत ने 2010 के बाद अपाचे अटैक हेलिकॉप्टर, चिनूक हैवी-लिफ्ट हेलिकॉप्टर और सी-17 ट्रांसपोर्ट विमान जैसे उन्नत उपकरण खरीदे हैं, लेकिन ये अभी भी उसकी सैन्य क्षमता का सीमित हिस्सा हैं। इन उपकरणों को पूरी तरह अपनाने, प्रशिक्षण और रखरखाव में भारी लागत और लंबा समय लगता है। रूसी उपकरणों को अमेरिकी उपकरणों से बदलना न केवल आर्थिक रूप से बोझिल है, बल्कि यह एक दशकों लंबी रणनीतिक प्रक्रिया है। यह बदलाव आर्थिक और सामरिक दृष्टिकोण से व्यवहार्य नहीं है, जिसके चलते भारत को अपनी रक्षा नीतियों में संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है।

इस धमकी का आर्थिक आयाम अत्यंत गंभीर है। अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, जहाँ 2024 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 120 अरब डॉलर को पार कर गया। 25 प्रतिशत टैरिफ जैसे कदम भारत के आईटी, फार्मास्यूटिकल्स और टेक्सटाइल क्षेत्रों को गहरी चोट पहुँचाएँगे। हालाँकि, रूस से दूरी का नुकसान इससे कहीं अधिक विनाशकारी होगा। रूस वह विश्वसनीय साझेदार रहा है, जिसने भारत को हर संकट में अडिग समर्थन दिया। यह रिश्ता केवल व्यापारिक गणनाओं का नहीं, बल्कि गहरे विश्वास और रणनीतिक एकजुटता का प्रतीक है, जिसे आंकड़ों में नहीं मापा जा सकता।

इस निर्णायक मोड़ पर भारत को अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। रूस के साथ साझेदारी न केवल भारत की रक्षा और ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए अपरिहार्य है, बल्कि क्षेत्रीय भू-राजनीतिक संतुलन के लिए भी अनिवार्य है। यदि भारत रूस से दूरी बनाता है, तो यह रूस को चीन और पाकिस्तान के करीब धकेल सकता है—एक ऐसा परिदृश्य जो भारत के लिए भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से विनाशकारी होगा। भारत को इस दबाव का जवाब कूटनीतिक कुशलता और अटल दृढ़ता के साथ देना होगा। न तो अपनी रक्षा क्षमताओं को कमजोर करना है, न ही आर्थिक हितों को खतरे में डालना है। यह समय भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को और सशक्त करने का है, जिसमें वह किसी भी बाहरी दबाव के सामने न झुके और अपने हितों को अडिग रखे। भारत का इतिहास यही सिखाता है—विश्वास, संतुलन और दृढ़ता के साथ हर चुनौती का सामना किया जा सकता है।

प्रो. आरके जैन “अरिजीत

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