सत्ता का अहंकार लोकतंत्र को निगलने को तैयार है,

सड़कों पर संविधान, हाथों में उम्मीद — अमेरिका का जन-जागरण

क्या इतिहास खुद को दोहराएगा, या लोकतंत्र लिखेगा नई सुबह?

18 अक्टूबर को, जब अमेरिका की सड़कों पर लाखों लोगों की हुंकार एक स्वर में गूँजी, तो यह महज़ एक प्रदर्शन नहीं था—यह एक राष्ट्र के गहरे जज़्बे का सशक्त विद्रोह था। न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर की चकाचौंध से शिकागो की संकरी गलियों तक, वाशिंगटन डीसी की पेनसिल्वेनिया एवेन्यू से लॉस एंजेल्स के जीवंत जुलूसों तक, हर कदम पर एक ही नारा गूँजा: "लोकतंत्र जिंदाबाद, तानाशाही नहीं!(Long live democracy, not dictatorship)" न कोई पत्थर फेंका गया, न कोई हथकड़ी खनकी—यह थी शांतिपूर्ण क्रांति की अडिग ताकत, जो संविधान की रक्षा के लिए उठी। यह वही अमेरिका है, जिसने कभी तानाशाहों को ठुकराया, जिसकी स्वतंत्रता की मशाल ने दुनिया को राह दिखाई। मगर आज, जब सत्ता का अहंकार लोकतंत्र को निगलने को तैयार है, एक सवाल हवा में गूँजता है: क्या यह जन-जागृति समय रहते विजय का परचम लहराएगी, या इतिहास फिर अपनी काली स्याही से दर्दनाक पन्ना लिखेगा?

आज का अमेरिका एक भीषण तूफान के चक्रव्यूह में फँसा है। नए सरकारी आदेशों ने संसद को हाशिए पर धकेल दिया, जैसे लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा हो। इमीग्रेशन नीतियाँ इतनी क्रूर हो चली हैं कि परिवार बिखर रहे हैं—मासूम बच्चे माता-पिता से छिन रहे हैं, बिना कागज़ वालों को सड़कों से बेरहमी से उठाया जा रहा है। शिकागो की गलियों में गुस्से का ज्वार उमड़ रहा है; लोग अमेरिकी झंडा उल्टा लहराकर चीख रहे हैं, क्योंकि ये नियम सिर्फ़ कागज़ी नहीं, इंसानियत पर तमाचा हैं। भारी टैक्स ने व्यापार को जकड़ लिया, कीमतें आसमान छू रही हैं, और नौकरियाँ रेत की तरह मुट्ठी से फिसल रही हैं। कनाडा और मैक्सिको जैसे पड़ोसियों के साथ व्यापारिक युद्ध ने रिश्तों को तार-तार कर दिया। स्वास्थ्य सेवाओं की कटौती ने लाखों लोगों को बुनियादी इलाज के लिए तरसा दिया, जैसे जीवन का अधिकार भी छीना जा रहा हो।(people will rule in America)




सबसे भयावह है शहरों का सैन्यीकरण। सरकारों के विरोध को ठेंगा दिखाते हुए सड़कों पर सैनिक उतार दिए गए हैं। इसे "अपराध से लड़ाई" का नाम दिया जा रहा है, मगर आलोचक इसे तानाशाही की ओर बढ़ता खतरनाक कदम करार देते हैं। सरकार ठप्प है, सरकारी कर्मचारी बिना वेतन के खून-पसीना बहा रहे हैं। व्हाइट हाउस ने सोशल मीडिया पर एक तस्वीर साझा की, जिसमें राष्ट्रपति को राजा का मुकुट पहने दिखाया गया—यह कोई हल्का मजाक नहीं, बल्कि सत्ता के अहंकार का खुला ऐलान था। कुछ नेताओं ने इसे अमेरिकी इतिहास का सबसे भ्रष्ट नेतृत्व ठहराया, चेतावनी दी कि सरकार बंदी का बहाना बनाकर शक्तियाँ हथियाई जा रही हैं। मगर संविधान की गूँज अटल है: "कोई राजा नहीं बनेगा,(No more kings) कोई अनधिकार शक्ति नहीं पाएगा!" न्यूयॉर्क में एक नेता ने तख्ती थामकर हुंकार भरी: "स्वास्थ्य सेवाएँ लौटाओ!" वाशिंगटन में एक सीनेटर ने भीड़ से कहा: "हम यहाँ हैं, क्योंकि हमारा देश हमारी जान है!"(No more kings.)




यह आंदोलन महज़ बड़े शहरों की चकाचौंध तक सीमित नहीं रहा; यह एक राष्ट्रव्यापी ज्वार बन गया, जो छोटे कस्बों तक लहराया। 18 अक्टूबर को न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर में ढोल-नगाड़ों की गूँज के बीच जनसैलाब हुंकार भर रहा था: "यही है सच्चा लोकतंत्र!" शिकागो की सड़कों पर उल्टे झंडों के साथ नारे गूँजे: "हमारा शहर आज़ाद करो!" लॉस एंजेल्स में रंग-बिरंगे लिबास में प्रदर्शनकारी नाचते हुए भी गंभीर थे, उनकी तख्तियाँ चीख-चीखकर कह रही थीं: "संविधान को मज़ाक मत बनाओ!" वाशिंगटन में बिना वेतन के काम कर रहे सरकारी कर्मचारी सड़कों पर उतर आए, उनके चेहरों पर गुस्सा नहीं, बल्कि अपने देश के लिए जुनून था। पूरे देश में हज़ारों रैलियाँ उमड़ीं—महानगरों से लेकर गाँवों तक। आयोजकों ने दृढ़ता से कहा: "हम हिंसा नहीं, अपने हक़ की लड़ाई चाहते हैं!" फिर भी, कुछ लोग इन प्रदर्शनों को "राष्ट्र-विरोधी" ठहराकर बदनाम करने की साज़िश रच रहे हैं।

एक बुजुर्ग, जिनका बचपन इटली की धरती पर बीता, ने अपनी दिल दहला देने वाली कहानी सुनाई। उनके चाचा ने तानाशाही के खिलाफ़ जंग लड़ी, यातनाएँ सहीं, और अपनी जान गँवाई। उनकी आँखों में डर और दृढ़ता थी, जब उन्होंने कहा: "दशकों बाद, मैंने कभी नहीं सोचा था कि अमेरिका में वही भयावह छाया फिर देखूँगा।" एक लेखिका ने गहरे दर्द के साथ लिखा: "ये नीतियाँ हमें अंधेरे गर्त में धकेल रही हैं, मगर लाखों लोगों का साथ उम्मीद की किरण जगा रहा है।" यह गुस्से का उबाल नहीं था—यह था अपने देश को बचाने का अटल संकल्प।

यह हुंकार सिर्फ़ अमेरिका की सरहदों तक नहीं रुकी। जर्मनी, स्पेन, और इटली की सड़कों पर भी लोग सड़कों पर उतरे। लंदन में अमेरिकी दूतावास के बाहर सैकड़ों की भीड़ ने एकजुटता दिखाई। कनाडा में गूँजा: "हमारी आज़ादी पर हाथ मत डालो!" यह सिर्फ़ एक देश की लड़ाई नहीं—यह वैश्विक स्वतंत्रता की पुकार है। अगर अमेरिका का लोकतंत्र डगमगाया, तो दुनिया भर में आज़ादी की मशाल मद्धम पड़ जाएगी। ये प्रदर्शन चीख-चीखकर बता रहे हैं कि दुनिया अमेरिका के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी है, क्योंकि उसका लोकतंत्र सिर्फ़ उसका नहीं, बल्कि समूची मानवता का प्रतीक है।

यदि ये नीतियाँ नहीं रुकीं, तो भविष्य के द्वार पर अंधकार ठठाकर हँसेगा। व्यापार युद्ध नौकरियों को लील लेगा, कीमतें आसमान की सैर करेंगी। इमीग्रेशन नियमों की मार से लोग बेघर होंगे, परिवारों की रीढ़ टूट जाएगी। सैनिकों की तैनाती शहरों को लोहे की सलाखों में जकड़ेगी। स्वास्थ्य सेवाओं की किल्लत बीमारियों को न्योता देगी, जैसे जीवन ही दाँव पर हो। मगर इन प्रदर्शनों ने एक नई सुबह का सूरज उगाया है। सड़कों पर जनसैलाब है, अदालतों में हक़ की जंग लड़ी जा रही है। अगले साल के मध्यावधि चुनाव उम्मीद की किरण बन सकते हैं। दुनिया के सहयोगी देश भी दबाव की ललकार बुलंद कर रहे हैं।

यह महज़ सियासत की जंग नहीं, बल्कि नैतिकता का युद्ध है। अमेरिका के संस्थापकों ने राजशाही को ठुकराया था, क्योंकि वे जानते थे कि सत्ता का दुरुपयोग स्वतंत्रता को कुचल देता है। आज संविधान फिर गर्जना कर रहा है: "कोई राजा नहीं बनेगा!" सड़कें चीख-चीखकर बता रही हैं कि असली शक्ति जनता के दिलों में धड़कती है। एक बुजुर्ग की काँपती मगर दृढ़ आवाज़ गूँजती है: "मैंने तानाशाही की साये में जिंदगी जिया, इसे फिर नहीं देख सकता!" लाखों लोग, एक स्वर—यह लोकतंत्र का अटल जज़्बा है। अगर एकजुट रहे, तो अंधेरा छँटेगा। दुनिया की नज़रें टिकी हैं, इतिहास के पन्ने लिखे जा रहे हैं। चुप्पी अब अपराध है—आवाज़ उठाएँ! क्योंकि अमेरिका में राजा नहीं, सिर्फ़ नागरिक हैं, और यही नागरिक देश के सच्चे प्रहरी हैं।

प्रो. आरके जैन “अरिजीत

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