गुरु अर्जुन देव जी की शहादत

गुरु अर्जुन देव: वो शौर्य जो जलाया गया, मगर बुझा नहीं
धर्म, सहिष्णुता और बलिदान की अमर ज्योति: गुरु अर्जुन देव जी की शहादत
गुरु अर्जुन देव जी की शहादत
इतिहास के कुछ क्षण ऐसे होते हैं, जो समय की धारा को मोड़ देते हैं—वे न केवल एक व्यक्ति या समुदाय की कहानी कहते हैं, बल्कि मानवता की चेतना को नया आयाम देते हैं। 16 जून 1606 का दिन ऐसा ही एक अनश्वर क्षण है, जब सिक्ख धर्म के पंचम गुरु, गुरु अर्जुन देव जी (Sikh Guru Arjun Dev Ji)ने अपने प्राणों की आहुति देकर धर्म, सत्य और मानवता की रक्षा का ऐसा दीप प्रज्वलित किया, जो आज भी अन्याय के अंधेरों को चीरता है। उनका बलिदान केवल सिक्ख इतिहास का एक अध्याय नहीं, बल्कि समूची सभ्यता के लिए एक प्रकाशस्तंभ है, जो आज भी हमें अन्याय के विरुद्ध खड़े होने, सहिष्णुता अपनाने और सत्य के लिए जीने की प्रेरणा देता है। गुरु अर्जुन देव जी का बलिदान एक ऐसी ज्योति है, जो हर उस हृदय में जलती है, जो अन्याय के सामने झुकने से इनकार करता है।
गुरु अर्जुन देव जी (Guru Arjun Dev Ji)का जन्म 15 अप्रैल 1563 को गोइंदवाल, पंजाब में हुआ। चौथे गुरु, गुरु रामदास जी और माता भानी के पुत्र, वे बचपन से ही असाधारण बुद्धिमत्ता और आध्यात्मिकता के धनी थे। 18 वर्ष की आयु में, 1581 में, उन्होंने गुरु गद्दी संभाली और अगले 25 वर्षों तक सिक्ख धर्म को न केवल एक आध्यात्मिक शक्ति बनाया, बल्कि इसे सामाजिक समानता और मानव कल्याण का प्रतीक भी बनाया। उनके नेतृत्व में सिक्ख समुदाय ने संगठित रूप लिया, और उनके कार्यों ने न केवल सिक्ख धर्म, बल्कि समूचे भारतीय समाज को एक नई दिशा दी।
गुरु अर्जुन देव जी के योगदान इतने व्यापक हैं कि उन्हें केवल एक धार्मिक गुरु कहना उनके व्यक्तित्व को सीमित करना होगा। उनके योगदानों में सबसे उल्लेखनीय है श्री हरिमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) की स्थापना। 1588 में शुरू और 1604 में पूर्ण हुआ यह मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि विश्व में धार्मिक समन्वय और समानता का प्रतीक बन गया। इसके चारों ओर बने चार द्वार इस संदेश को गूंजाते हैं कि ईश्वर का घर हर धर्म, हर जाति और हर वर्ग के लिए खुला है। यह उस समय के लिए एक क्रांतिकारी विचार था, जब धार्मिक और सामाजिक भेदभाव चरम पर थे। गुरु जी की दूरदर्शिता ने स्वर्ण मंदिर को न केवल सिक्खों का पवित्र तीर्थ बनाया, बल्कि इसे मानवता की एकता का जीवंत प्रतीक भी बनाया।
उनका दूसरा महान योगदान है ‘आदि ग्रंथ’ का संकलन, जिसे बाद में श्री गुरु ग्रंथ साहिब के रूप में पूजा गया। 1604 में पूर्ण हुए इस ग्रंथ में गुरु अर्जुन देव जी ने न केवल सिक्ख गुरुओं की वाणी को संकलित किया, बल्कि हिंदू संतों जैसे कबीर, रविदास, नामदेव और मुस्लिम संतों जैसे बाबा फरीद की रचनाओं को भी शामिल किया। स्वयं गुरु जी ने इसमें 2,218 शबद और श्लोक लिखे, जो भक्ति, प्रेम, और मानवता के उच्च आदर्शों को दर्शाते हैं। यह ग्रंथ केवल धार्मिक लेखन नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक एकता का एक अनुपम दस्तावेज है। आदि ग्रंथ ने धार्मिक कट्टरता को चुनौती दी और सहिष्णुता का संदेश विश्व तक पहुंचाया।
गुरु अर्जुन देव जी का बढ़ता प्रभाव और उनकी लोकप्रियता मुगल शासक जहांगीर के लिए असहनीय थी। ‘तुजुक-ए-जहांगीरी’ में जहांगीर ने स्वीकार किया कि गुरु जी का प्रभाव हिंदुओं और मुसलमानों में इतना बढ़ गया था कि वह शासन के लिए खतरा बन सकता था। इसके अतिरिक्त, गुरु जी ने जहांगीर के विद्रोही पुत्र खुसरो को आशीर्वाद दिया, जिसे शासक ने राजद्रोह माना। इन कारणों से 1606 में लाहौर में गुरु जी को गिरफ्तार किया गया। उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया, पर गुरु जी ने अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए इसे ठुकरा दिया।
इसके बाद शुरू हुआ यातनाओं का वह अमानवीय सिलसिला, जो मानव इतिहास में क्रूरता का प्रतीक बन गया। गुरु जी को गर्म तवे पर बैठाया गया, उनके शरीर पर खौलता पानी और गर्म रेत डाली गई। कई दिनों तक यह यातना चली, पर गुरु जी का आत्मबल अटल रहा। उनके चेहरे पर न दर्द की शिकन थी, न ही क्रोध का भाव। उनकी शांति और साहस ने उनके यातना देने वालों को भी हतप्रभ कर दिया। 16 जून 1606 को, रावी नदी के तट पर स्नान करते हुए उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया और अमरता को प्राप्त किया। यह सिक्ख इतिहास की पहली शहादत थी, जिसने न केवल सिक्ख समुदाय को एक नई दिशा दी, बल्कि विश्व को सत्य के लिए बलिदान की शक्ति दिखाई।
गुरु अर्जुन देव जी की शहादत केवल एक धार्मिक घटना नहीं थी; यह मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आध्यात्मिक साहस का सर्वोच्च उदाहरण थी। उन्होंने सिखाया कि सच्चा धर्म वह नहीं जो डराता है, बल्कि वह जो प्रेम, करुणा और साहस सिखाता है। उनकी शहादत ने सिक्ख धर्म में ‘मिरी-पीरी’ के सिद्धांत को जन्म दिया, जिसके तहत आध्यात्मिकता और सामाजिक जिम्मेदारी का समन्वय हुआ। इस बलिदान ने छठे गुरु, गुरु हरगोबिंद साहिब जी को सिक्खों को सैन्य शक्ति के रूप में संगठित करने की प्रेरणा दी, ताकि वे अन्याय का मुकाबला कर सकें।
आज के युग में, जब विश्व धार्मिक असहिष्णुता, वैचारिक टकराव और नैतिक पतन से जूझ रहा है, गुरु अर्जुन देव जी की शिक्षाएं और उनका बलिदान हमें रास्ता दिखाते हैं। उन्होंने सिखाया कि धर्म का असली अर्थ है—सेवा, समानता और सत्य के लिए संघर्ष। उनका जीवन हमें यह भी सिखाता है कि शक्ति का सही उपयोग मानवता की रक्षा में होता है, न कि सत्ता की रक्षा में। उनकी शहादत हमें यह याद दिलाती है कि सत्य का मार्ग कठिन हो सकता है, पर वह हमेशा विजयी होता है।
गुरु अर्जुन देव जी का जीवन और बलिदान केवल सिक्खों के लिए नहीं, बल्कि समस्त मानवता के लिए एक प्रेरणा है। उनकी शिक्षाएं—जो आदि ग्रंथ के पन्नों में, स्वर्ण मंदिर के खुले द्वारों में और उनकी शहादत की अमर गाथा में जीवित हैं—हमें यह सिखाती हैं कि सत्य और प्रेम ही वह शक्ति है, जो दुनिया को बदल सकती है। उनकी वह ज्योति, जो रावी के तट पर जली, आज भी हमारे हृदयों में जल रही है। यह हमें सिखाती है कि सत्य के लिए जीना और उसके लिए मरना ही असल जीत है।
16 जून को, हम उनकी पुण्यतिथि पर न केवल उनकी शहादत को याद करते हैं, बल्कि उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प भी लेते हैं। गुरु अर्जुन देव जी की अमर गाथा हमें यह सिखाती है कि गुरु केवल उपदेशक नहीं, बल्कि पथ-प्रदर्शक और बलिदानी भी होते हैं। उनकी वह आवाज, जो सत्य और मानवता के लिए गूंजी, आज भी हमारे कानों में गूंज रही है। “नाम जपो, किरत करो, वंड छको”—यह उनका संदेश आज भी हमें प्रेरित करता है कि हम ईश्वर का नाम लें, मेहनत करें और मानवता की सेवा करें। गुरु अर्जुन देव जी, आपने न केवल सिक्ख धर्म को ऊंचाई दी, बल्कि मानवता को वह प्रकाश दिया, जो युगों-युगों तक जगमगाएगा।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत