भारत में गोबर विकास

"गोबर, गुस्सा और विश्वविद्यालय की गिरती गरिमा"

गोबर का जवाब: जब शिक्षा की दीवारों पर गुस्सा पुता हो।

गोबर के पीछे सरकार: विज्ञान, शिक्षा और विवेक का अपहरण

— डॉ. सत्यवान सौरभ

जिस देश में बच्चों के हाथों में लैपटॉप और प्रयोगशालाएं होनी चाहिए, वहाँ आज गोबर से लीपे क्लासरूम (Classroom)पर प्रयोग हो रहा है। और यह कोई गाँव की छवि नहीं, बल्कि दिल्ली विश्वविद्यालय (Delhi University College)जैसी देश की शीर्षस्थ शिक्षण संस्था की हकीकत है — जहाँ गोबर से ठंडक पाने की बात कहकर क्लासरूम की दीवारें लीपी जा रही हैं, और विरोध करने पर छात्रों को उपद्रवी कहा जा रहा है। सवाल है — क्या यह "अनुसंधान" है या शिक्षा व्यवस्था पर थोपे जा रहे राजनीतिक प्रयोग?

यह विडंबना नहीं, विघटन है — और सबसे पहले यह सवाल उठना चाहिए कि जिन लोगों को खुद के लिए वातानुकूलित (AC) कमरे चाहिए, वे छात्रों को गोबर की ठंडक का उपदेश क्यों दे रहे हैं? ऐसा कौन-सा शोध है जो बच्चों को प्रयोगशाला नहीं, प्रयोग मानता है?

'गोबर क्रांति' या दिशाहीन जिद?

आजकल एक विचित्र मोह देखा जा रहा है — जैसे गोबर में ही देश की सारी समस्याओं का समाधान छुपा हो। ऊर्जा से लेकर पर्यावरण तक, हर मुद्दे का जवाब गोबर में खोजा जा रहा है। लेकिन इस 'गोबर क्रांति' का पहला प्रायोगिक केंद्र यदि छात्रों की कक्षा है, तो यह केवल पाखंड है। क्योंकि जिन नीति-निर्माताओं ने यह निर्णय लिया, उनके अपने कार्यालयों में न तो गोबर है, न ही उसका कोई प्रयोग। वे तो आधुनिक सुख-सुविधाओं में जीते हैं, और छात्रों पर देसी ठंडक का बोझ डालते हैं।(Cow dung development in India)

क्या यह विचार करने का विषय नहीं कि भारत आज भी अपने स्कूलों में शौचालय, पंखा और साफ़ पानी नहीं दे पाया है, लेकिन गोबर से ठंडक का दिखावा ज़रूर कर रहा है?

शिक्षा में विज्ञान नहीं, सनक घुस आई है

चीन, जापान, कोरिया जैसे देश स्कूलों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और क्वांटम कंप्यूटिंग सिखा रहे हैं। वहीं भारत में बच्चों को बताया जा रहा है कि गोबर की परत से गर्मी दूर होगी। सरकार की तकनीकी सोच यदि गोबर तक सीमित हो गई है, तो यह केवल हास्यास्पद ही नहीं, चिंताजनक भी है।

शोध के नाम पर यदि आप छात्रों को अनचाहे प्रयोग का हिस्सा बना रहे हैं, तो यह संविधान में दिए गए उनके मूल अधिकारों का उल्लंघन है। यह तंत्र अब शिक्षा का नहीं, अंध-आस्थाओं का प्रतिनिधि बन गया है।

DUSU अध्यक्ष की प्रतिक्रिया: जवाबदेही या विद्रोह?

यह किसी तरह का अराजक प्रदर्शन नहीं था। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (DUSU) अध्यक्ष की प्रतिक्रिया एक वैचारिक प्रतिरोध था। जब छात्र अपनी पढ़ाई, अपने स्वास्थ्य और अपने परिवेश के लिए चिंतित हों — और उनकी बात सुनी न जाए — तो क्या वे चुप बैठ जाएं?

DUSU अध्यक्ष ने जिस तरह से गोबर-प्रयोग के विरोध में आवाज़ उठाई, वह एक छात्र प्रतिनिधि की जिम्मेदारी है। इस दौर में, जहाँ छात्रों को अक्सर "देशद्रोही" करार देकर चुप कराया जाता है, वहाँ उनका अपनी ज़मीन पर खड़ा होना साहस है, और लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रमाण भी।

क्लासरूम या गोशाला? अंतर तय कौन करेगा?

शिक्षा एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, उसमें भावनाओं और प्रतीकों का स्थान सीमित होता है। पर आज लगता है कि क्लासरूम को गोशाला में बदलने की एक असामाजिक कोशिश की जा रही है। यदि सरकार को वाकई गोबर पर इतना भरोसा है तो क्यों न संसद भवन, सचिवालय और मंत्रालयों में 'गोबर-कूलिंग सिस्टम' लागू किया जाए? क्यों सिर्फ बच्चों पर यह भार?

यह वही मानसिकता है जो अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों में भेजती है लेकिन सरकारी स्कूलों में ‘संस्कृति’ का पाठ पढ़ाने पर जोर देती है। यह वही दोहरापन है जो बच्चों से 'आत्मनिर्भर' बनने को कहता है लेकिन खुद अमरीकी कंपनियों के एसी और गैजेट्स से चिपका रहता है।

भारत बनाम भारत सरकार: विकास की परिभाषा में टकराव

भारत की जनता स्मार्ट तकनीक चाहती है, वैज्ञानिक सोच चाहती है, और आधुनिक शिक्षा चाहती है। लेकिन भारत सरकार की कुछ संस्थाएं प्रतीकों और परंपराओं में उलझी हैं। सरकार का यह गोबर प्रेम तब तक ठीक लगता है जब तक वह स्वैच्छिक होता है। लेकिन जैसे ही इसे अनिवार्य या शैक्षणिक प्रयोग बना दिया जाता है, वह खतरनाक बन जाता है।(India vs Government of India)

गोबर एक जैविक तत्व है, इसमें कोई विवाद नहीं। लेकिन हर जैविक चीज़ उपयोगी नहीं होती यदि वह तर्कहीन तरीकों से लागू की जाए। क्या छात्रों की सहमति ली गई? क्या उनके स्वास्थ्य के लिए जोखिम का आकलन किया गया? यदि नहीं, तो यह न केवल अवैज्ञानिक है बल्कि अमानवीय भी।

व्यंग्य में लिपटा यथार्थ

जिस देश में आज भी लाखों बच्चे स्कूलों में ज़मीन पर बैठते हैं, जहाँ छतें टपकती हैं, वहाँ गोबर से ठंडक पाने का तर्क देना केवल लापरवाही नहीं, बच्चों के भविष्य के साथ क्रूर मज़ाक है। भारत की शिक्षा व्यवस्था को नीति, नवाचार और निगरानी की ज़रूरत है — न कि गोबर के लेप की।

अंत में

एक समय था जब शिक्षा को मंदिर कहा जाता था। लेकिन अब लगता है जैसे शिक्षा को 'लेप केंद्र' बना दिया गया है — जहाँ दीवारें गोबर से लीपी जाती हैं, और विरोध करने वालों को 'विघटनकारी तत्व' बताया जाता है। ऐसे समय में छात्रों की आवाज़ बनना ही असली देशभक्ति है, और उसी देशभक्ति का परिचय DUSU अध्यक्ष ने दिया।

Related Articles
Next Story
Share it