डिजिटल स्मृति: क्या हम अपनी यादों को डेटा सेंटर में दफना रहे हैं?
हम इस युग में जी रहे हैं जहाँ हमारी यादों का ठिकाना अब हमारे दिल-दिमाग या पारिवारिक संदूकों में नहीं, बल्कि अनगिनत सर्वरों में कहीं दूर किसी डेटा सेंटर में छुपा बैठा है। कभी तस्वीरें पुराने बक्सों में रखी जाती थीं, जिन्हें बरसों बाद खोलने पर उनकी महक से स्मृतियों की भीनी लहर उठती थी। अब वही तस्वीरें किसी क्लाउड ड्राइव के अनंत फोल्डरों में दबी पड़ी रहती हैं। यह बदलाव जितना सुविधाजनक लगता है, उतना ही खतरनाक भी है, क्योंकि धीरे-धीरे हम अपनी स्मृतियों का भार खुद उठाने की क्षमता खोते जा रहे हैं। डिजिटल स्मृति एक अद्भुत औजार है जिसने हमें अपनी ज़िंदगी के हर छोटे-बड़े पल को स्थायी रूप से सहेजने की शक्ति दी। मोबाइल कैमरे की एक क्लिक में हम किसी दृश्य को फ्रीज कर लेते हैं। पर क्या कभी सोचा है कि इस सुविधाजनक संग्रहण की कीमत क्या है? हमने अपनी स्मृतियों को अनुभव करने के बजाय संग्रह करने की वस्तु में बदल दिया है। हम किसी त्योहार में अपने प्रियजनों के साथ मुस्कुराते हुए तस्वीर तो ले लेते हैं, लेकिन उस मुस्कान को पूरी तरह जी नहीं पाते। कैमरे के पीछे से देखने की इस आदत ने अनुभवों की आत्मा को छीन लिया है।
डिजिटल मेमोरी की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वह असल में हमारी अपनी स्मृति की दुश्मन बन रही है। जब हम जान जाते हैं कि सबकुछ गूगल फोटोज या आईक्लाउड में सुरक्षित है, तो मस्तिष्क को याद रखने की जरूरत ही कहाँ महसूस होती है? यह सुविधा धीरे-धीरे हमारी प्राकृतिक स्मरणशक्ति को कुंद कर रही है। आज अगर कोई पूछे कि पिछली गर्मियों की यात्रा में किस दिन क्या किया था, तो हम जेब से मोबाइल निकालकर डेट देखेंगे। क्या यह हमारी मानसिक स्वायत्तता का लोप नहीं है?
यादों का डिजिटल होना उन्हें निर्जीव भी बना देता है। पहले किसी फोटो एलबम को पलटते हुए उसमें दादी का लिखा कोई छोटा सा नोट, किसी तस्वीर के पीछे पेंसिल से लिखी तारीख, या चाय के दाग का निशान मिल जाता था। उन छूने-सूंघने के अनुभवों में एक आत्मीयता छुपी होती थी। अब सब फाइलें हैं, जिनका कोई रंग-गंध नहीं। वे अपनी टेक्सचर खो चुकी हैं। डेटा सेंटर में कैद ये फोटोज़, वीडियोज़ और चैट हमारे अतीत के निर्जीव दस्तावेज़ बन जाते हैं।
इस डिजिटल संग्रहण की एक और कड़वी सच्चाई यह है कि यह पूरी तरह हमारे नियंत्रण में भी नहीं। गूगल, ऐप्पल, फेसबुक जैसी कंपनियाँ अनगिनत सर्वरों पर हमारी निजी यादों का व्यापार कर रही हैं। हम हर ऐप को अपनी फोटो गैलरी की अनुमति देकर मानो अपनी यादों की चाबी अनजान हाथों में सौंप देते हैं। उनके ऐल्गोरिद्म हमारी तस्वीरें पढ़ते हैं, चेहरे पहचानते हैं, और हम पर विज्ञापनों की बौछार करते हैं। यह निजता का ह्रास भी है, और एक तरह से हमारी स्मृति का उपनिवेशीकरण भी।
एक सवाल जो आज हमें खुद से पूछना चाहिए, वह यह है कि क्या हमें हर चीज़ को डिजिटल रूप में सहेजने की लत लग चुकी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम किसी पल को सिर्फ इसलिए जी रहे हैं ताकि उसे पोस्ट कर सकें? कई शोध बताते हैं कि लगातार फोटो लेने की आदत से हमारा “प्रेज़ेन्स” यानी उस पल में पूरी तरह मौजूद रहने की क्षमता घटती जाती है। याददाश्त केवल दृश्य संग्रह नहीं होती, उसमें भावनाओं का ताप भी होता है। वह ताप जब छवियों से अलग हो जाए, तो वे महज डिजिटल साक्ष्य बनकर रह जाती हैं।
यादों की डिजिटल क़ैद हमें एक अजीब असुरक्षा में भी डालती है। हार्डड्राइव क्रैश हो जाए, क्लाउड सर्विस बंद हो जाए, अकाउंट हैक हो जाए—तो लगता है मानो हमारी पूरी ज़िंदगी लापता हो गई। पहले स्मृतियाँ हमारे भीतर सुरक्षित होती थीं। अब उनकी रक्षा के लिए हमें पासवर्ड, टू-फैक्टर ऑथेंटिकेशन और अनगिनत बैकअप की ज़रूरत पड़ती है। यह अनिश्चितता हमें मानसिक रूप से भी अस्थिर बनाती है।
जरूरी यह नहीं कि हम तकनीक से दूर भागें। डिजिटल स्मृति के कई फायदे हैं—पुरानी तस्वीरें एक क्लिक में देखना, कहीं से भी शेयर करना, या परिवार के उन सदस्यों को याद करना जो हमारे साथ नहीं रहे। पर इसकी सीमा तय करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। हमें यह निर्णय लेना होगा कि कौन सी यादें हमारे दिल-दिमाग में रहेंगी और कौन सी क्लाउड में। हमें फिर से यह अभ्यास करना होगा कि कुछ खास पलों को केवल अपनी आत्मा में दर्ज करें, बिना किसी कैमरे के।
कभी-कभी किसी दृश्य को बस अपनी आंखों से देख लेना और उसे मन में संजो लेना, एक गहरे तृप्त करने वाला अनुभव होता है। यह स्मृति सच्ची होती है, किसी डिजिटल फाइल से कहीं ज़्यादा जिंदा। हमें यह स्वीकार करना होगा कि यादें केवल “स्टोरेज” की चीज़ नहीं, बल्कि हमारी संवेदनशीलता, हमारी मानवीयता का हिस्सा हैं। डिजिटल स्मृति का यह युग हमें सुविधाएं तो देगा, लेकिन अगर हम सावधान न हुए, तो यह हमारी असली स्मृतियों का कब्रगाह भी बन सकता है। इसलिए अब वक्त आ गया है कि हम अपनी यादों को सिर्फ डेटा सेंटर में दफन न करें, बल्कि उन्हें अपने मन की सबसे कोमल जगहों में जीवित रखें।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत