भारत में बीजेपी अफगानिस्तान तालिबान ये रिश्ता क्या कहलाता है

By :  Newshand
Update: 2025-10-16 12:42 GMT

दुश्मनी से दोस्ती तक: भारत–तालिबान रिश्तों का नया अध्याय

विश्व मंच पर नई पटकथा: भारत–तालिबान सहयोग का उदय

जब भू-राजनीति के जटिल ताने-बाने में पुराने ज़ख्म सहजता से भरने लगें और दुश्मनी की कड़वाहट मधुर सहयोग में ढल जाए, तो विश्व मंच का चक्र कितना विस्मयकारी हो उठता है। भारत और तालिबान के उभरते रिश्ते इस चमत्कार की जीवंत मिसाल हैं, जहां वैचारिक खाइयों को व्यावहारिक हितों की मज़बूत डोर ने पाट दिया है। सोचिए, दो दशक पूर्व पाकिस्तान के छद्म हथियार के रूप में कुख्यात तालिबान आज भारत के रणनीतिक साझेदार की दहलीज पर खड़ा है, अफगानिस्तान की धरती से उठकर क्षेत्रीय समीकरणों को नया रंग दे रहा है। तालिबान विदेश मंत्री का हालिया भारत दौरा—जहां गर्मजोशी भरे स्वागत के बीच दूतावास स्तर की बहाली की घोषणा हुई—न केवल तल्ख इतिहास के अंतिम पन्ने को पलटता है, बल्कि भारत की कूटनीतिक प्रौढ़ता का सशक्त प्रमाण भी है। यह एक ऐसी नीति है, जो सत्ता की कठोर सच्चाइयों को अपनाकर राष्ट्रीय हितों की रक्षा करती है, अतीत की जंजीरों से मुक्त, भविष्य की ओर दृढ़ कदम बढ़ाती हुई।

इस परिवर्तन की जड़ें गहरी और बहुआयामी हैं, जो भारत-अफगानिस्तान संबंधों को नई ऊंचाइयों पर ले जा रही हैं। सुरक्षा मोर्चे पर भारत की चिंताएं—कश्मीर-केंद्रित चरमपंथ, आईएसआईएस-के और अल-कायदा की साजिशें—अफगान मिट्टी से पनपने के खतरे से हमेशा सताई रहीं, लेकिन तालिबान के स्पष्ट आश्वासन, कि उनकी धरती कभी भारत-विरोधी हमलों का अड्डा नहीं बनेगी, ने विश्वास की मजबूत नींव रखी। अब खुफिया सूचनाओं का साझा आदान-प्रदान, संयुक्त निगरानी तंत्र और आईएस जैसे साझा दुश्मनों के खिलाफ सहयोग इस साझेदारी को अटल बना रहा है, क्योंकि तालिबान खुद इन चरमपंथियों से जंग लड़ रहा है।




आर्थिक पटल पर यह गठबंधन चमकदार अवसरों से भरा है: अफगानिस्तान के रसीले अनार, किशमिश, पिस्ता और जड़ी-बूटियां भारत के विशाल बाजारों में प्रवेश कर रही हैं, जहां पाकिस्तान की वाघा-कराची सीमाओं की रुकावटें अब इतिहास का हिस्सा बनने वाली हैं। चाबहार बंदरगाह के जरिए मध्य एशियाई गलियारों से जुड़ाव, खनिज संसाधनों में भारतीय निवेश, और पुरानी परियोजनाओं का पुनरारंभ—सलमा बांध की जीवनदायिनी धाराओं से लेकर काबुल संसद भवन की भव्यता तक—अफगान अर्थव्यवस्था को नई सांस देगा। बदले में भारत को ऊर्जा सुरक्षा, व्यापारिक लाभ और क्षेत्रीय वर्चस्व मिलेगा। हवाई गलियारों की स्थापना और ईरानी बंदरगाहों का प्रभावी उपयोग इस आर्थिक पुल को और मजबूत करेगा, अफगान गरीबी को जड़ से मिटाने में सहायक सिद्ध होगा।

तालिबान के लिए यह रिश्ता वैधता का अमृतकलश है—पाकिस्तानी आईएसआई की कठपुतली की छवि से मुक्ति, स्वतंत्र शक्ति के रूप में उभरना, और पश्चिमी प्रतिबंधों के बीच वैकल्पिक समर्थन की ताकत। मानवीय सहायता के तहत भोजन-दवाओं का वितरण, व्यापारियों-छात्रों-मरीजों के लिए आसान वीजा, कंप्यूटर प्रशिक्षण से प्रशासनिक कौशल हस्तांतरण तक—ये कदम तालिबान शासन को आंतरिक स्थिरता देंगे, अफगान नागरिकों की आकांक्षाओं को साकार करेंगे। इस प्रकार, यह साझेदारी न केवल द्विपक्षीय लाभ का स्रोत है, बल्कि क्षेत्रीय शांति और समृद्धि की कुंजी भी।





 


पाकिस्तान इस भू-राजनीतिक नाटक का सबसे बड़ा हारी है, जहां उसका तालिबान प्रेम सीमा पर गोलाबारी, टीटीपी के खूनी हमलों और आपसी कटुता में तब्दील हो चुका है। पाकिस्तानी रक्षा मंत्री का 'शत्रु देश' बयान दरार को और गहराता है, जबकि अफगान हवाई हमलों में नागरिक हत्याओं के आरोप तालिबान को भारत की ओर धकेल रहे हैं। काबुल पर दबदबा कायम करने का इस्लामाबाद का दशकों पुराना सपना अब भारत के बढ़ते प्रभाव से चूर-चूर है। भारत की अफगानिस्तान में सक्रियता न केवल पाकिस्तानी रणनीति को ध्वस्त करती है, बल्कि बलूच विद्रोह और टीटीपी समर्थन के आरोपों को हवा देती है, जिनका भारत लगातार खंडन करता रहा है। यह बदलाव क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन को नया आयाम देता है—चीन की बेल्ट एंड रोड महत्त्वाकांक्षाएं, रूस की पारंपरिक पैठ, और ईरान की सीमाई चिंताएं—सब अफगानिस्तान को दांव पर लगाए हुए हैं। भारत की 'नेबरहुड फर्स्ट' नीति यहां चमकती है, जो सतर्क लेकिन साहसी कदमों से प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रही है, युद्ध की छाया से परे। तालिबान की स्वतंत्र विदेश नीति का ऐलान—पाकिस्तान की मांगों से मुक्त होना—भारत को आकर्षित करता है, जबकि अफगान नागरिकों की शिकायतें पाकिस्तानी रुकावटों पर केंद्रित हैं, जो इस नई दोस्ती को स्वाभाविक बनाती हैं।




फिर भी, यह साझेदारी सावधानी की मांग करती है, क्योंकि शांति का भ्रम घातक हो सकता है। भारत ने तालिबान को औपचारिक मान्यता देने से परहेज किया है, महिलाओं पर अमानवीय पाबंदियों, अल्पसंख्यकों की दशा, और मानवाधिकार उल्लंघनों पर गहरी चिंताएं बरकरार हैं। 2021 में दूतावास बंदी और वीजा रद्दीकरण को पूर्व अफगान नेताओं ने विश्वासघात करार दिया, जो आज भी हवा में तैरते जख्म हैं। सुरक्षा जोखिम साये की तरह लिपटे हैं—चरमपंथी समूहों की साजिशें, अल-कायदा के अवशेष, और आईएस की उभरती ताकत सतर्कता की घंटी बजाते हैं। दोनों पक्ष धीमे मगर ठोस कदम उठा रहे हैं: तकनीकी टीमों से राजनयिक मिशनों तक, वाणिज्य दूतावासों का हस्तांतरण, उच्च-स्तरीय वार्ताएं—ये सतर्क प्रगति के प्रतीक हैं। व्यावहारिकता यहाँ सिद्धांतों पर भारी पड़ रही है; जैसा कि कूटनीति की भाषा में कहा जाता है, सत्ता में जो है, उसके साथ जुड़ना अनिवार्य है, चाहे वह कितना ही विवादास्पद हो।




यह 'दुश्मन से मित्र' की गाथा भारत की दूरदर्शी कूटनीति का उत्सव है, जो अतीत की कटुता को भुलाकर भविष्य की संभावनाओं को गढ़ रही है। यदि यह गठजोड़ गहराता है, तो दक्षिण एशिया में शांति की लहर दौड़ेगी—व्यापारिक कारवां सड़कों पर लहराएंगे, विकास की धारा अफगान घाटियों को सींचेगी, और क्षेत्रीय स्थिरता नई ऊंचाइयों को छुएगी। पाकिस्तान को सबक मिलेगा कि छद्म युद्धों की होड़ में दोस्त खोना महंगा पड़ता है, जबकि भारत एक जिम्मेदार शक्ति के रूप में उभरेगा। लेकिन सफलता की कुंजी है सतत संवाद, पारस्परिक सम्मान, और सुधारों की प्रतिबद्धता—तालिबान को मानवाधिकारों की राह अपनानी होगी, और भारत को विश्वास का निर्माण जारी रखना होगा। यह नया दौर महज आहट नहीं, बल्कि एक क्रांति है, जहां पुराने शत्रु मिलकर समृद्धि का सपना बुन रहे हैं। भारत की यह कूटनीतिक विजय न केवल अफगानिस्तान को जोड़ेगी, बल्कि पूरे उपमहाद्वीप को नई दिशा देगी।

प्रो. आरके जैन “अरिजीत

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