भारत की सड़कें खून से लाल, व्यवस्था बयान से सफेद
हर हादसा एक सवाल है — जवाब कौन देगा?
सड़कें खून से लाल, व्यवस्था बयान से सफेद
देश आगे बढ़ रहा है, पर सुरक्षा पीछे छूट गई है
इंदौर की सड़क पर बिखरा ख़ून और दिल्ली के आसमान में गूंजा धमाका — दो शहर, दो हादसे, लेकिन एक ही सच्चाई — कहीं कोई सुरक्षित नहीं। हर सुबह अब डर की दस्तक के साथ आती है। कभी सड़कें जाल बन जाती हैं, जहाँ ज़िंदगी हर मोड़ पर फिसलती है, तो कभी पुल अपनी ही नींव पर धोखा दे देते हैं। भीड़भरे बाज़ारों में मुस्कानें भी अब डर की आहट सुनती हैं, और बच्चों की हँसी में भी अनजानी चिंता घुली रहती है। न जाने कब कोई गाड़ी बेकाबू होकर मासूम ज़िंदगियों को कुचल दे, न जाने कब कोई पुल थककर ढह जाए, न जाने कब किसी उत्सव में खुशियों के बीच बारूद की गंध फैल जाए। हर हादसे के बाद वही बयान, वही मुआवज़े, वही चुप्पी — और फिर वही लौटता हुआ डर। अब सच्चाई यही है — कहीं कोई सुरक्षित नहीं।
अब देश में सुरक्षा कोई हकीकत नहीं, बस आंकड़ों का छलावा बन गई है। रिपोर्टें दावे करती हैं कि अपराध घट रहे हैं, दुर्घटनाएँ कम हुई हैं — पर सच्चाई यह है कि ज़मीन पर इंसान का भरोसा हर दिन थोड़ा और टूटता जा रहा है। जब शासन की प्राथमिकता सुरक्षा नहीं, बल्कि बयानबाज़ी की चमक बन जाए, तब हादसे नियति नहीं, व्यवस्था की नाकामी कहलाते हैं। सवाल यह नहीं कि गाड़ी किसकी थी या पुल किस ठेकेदार ने बनाया; सवाल यह है कि ज़िम्मेदारी आखिर तय कब होगी, जवाबदेही कब जागेगी, और इंसानियत अपने मलबे से कब उठेगी?
हर त्रासदी के बाद व्यवस्था का चेहरा अब पहचान में आने लगा है — बयानबाज़ी से सना हुआ, संवेदनहीन और यांत्रिक। “दोषियों पर सख़्त कार्रवाई होगी”, “जांच कमेटी गठित की गई है”, “मुआवज़ा घोषित किया गया है” — जैसे यही शब्द अब शासन की आत्मा और संवेदना दोनों बन गए हों। पर सच्चाई यह है कि इन बयानों के पीछे छिपी है एक गहरी बेफ़िक्री, एक निष्ठुर ठहराव। जब किसी बच्चे की सांसें थमती हैं, किसी माँ की गोद सूनी होती है, तो उस दर्द को ‘मुआवज़े’ की रकम से नहीं तोला जा सकता। लेकिन व्यवस्था ने दर्द को भी ‘फाइल नंबर’ बना दिया है।
आज हर सड़क पर डर है — और हर मोड़ पर लापरवाही का साया। दुर्घटनाओं की जड़ तेज़ रफ़्तार में नहीं, बल्कि सुस्त और बेपरवाह व्यवस्था में छिपी है। कहीं बिना फिटनेस सर्टिफिकेट के ट्रक दौड़ रहे हैं, कहीं बिना प्रशिक्षण के ड्राइवर जानों से खेल रहे हैं, और कहीं पुलिसकर्मी घूस के बदले ज़िम्मेदारी गिरवी रख चुके हैं। नतीजा — कोई मासूम सड़क पर कुचल जाता है, कोई परिवार बिखर जाता है, और व्यवस्था अपनी जगह अडिग खड़ी रहती है।
पुल गिरते हैं क्योंकि ईमानदारी की जगह रिश्वत ने नींव पकड़ी है; इमारतें ढहती हैं क्योंकि मंज़िलें अनुमति से नहीं, सांठगांठ और स्वार्थ से खड़ी हुई हैं। और हर बार वही रटा-रटाया जवाब — “जांच जारी है।” पर अफ़सोस, जांच भले जारी हो, न्याय अब भी लंबित है।
हकीकत यही है — सुरक्षा अब ‘सुविधा’ नहीं, बल्कि ‘संघर्ष’ बन चुकी है। अब आम आदमी को ज़िंदा रहने तक के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है — सड़क पार करने से लेकर न्याय की चौखट तक। कानून का शिकंजा कमज़ोरों पर कसता है, मगर ताकतवरों के आगे ढीला पड़ जाता है। अगर किसी नेता या मंत्री की गाड़ी लाल बत्ती तोड़े, तो उसे “काफ़िला” कहा जाता है; वही गलती आम आदमी करे, तो वह “अपराधी” ठहराया जाता है। यही दोहरापन बताता है कि व्यवस्था की जड़ें कितनी सड़ चुकी हैं — जहाँ इंसाफ़ का तराज़ू झुक चुका है, और आम आदमी सिर्फ़ संघर्ष का पर्याय बन गया है।
समस्या सिर्फ़ ढाँचों या नीतियों की नहीं, हमारी सोच की जड़ता की है। अब हादसे खबर बनते हैं, संवेदना नहीं जगाते। लोग मदद से ज़्यादा कैमरे उठाते हैं, अधिकारी या नेता निरीक्षण से ज़्यादा बयान देते हैं, और मीडिया सच से ज़्यादा सनसनी बेचता है। वह समाज, जो कभी बदलाव की ताक़त था, अब बेबसी का प्रतीक बन चुका है। “क्यों बोलें? कुछ बदलता तो है नहीं…” — यह वाक्य आज की सबसे बड़ी त्रासदी है, जो बताता है कि हम सिर्फ़ पीड़ित नहीं, मौन दर्शक भी बन गए हैं।
पर क्या सचमुच कुछ नहीं बदला जा सकता? बदला जा सकता है — अगर ‘निलंबन’ से आगे बढ़कर ‘जवाबदेही’ को अनिवार्य बनाया जाए। अगर हर ठेकेदार, हर अधिकारी, हर मंत्री यह जाने कि उसकी लापरवाही पर सिर्फ़ जांच नहीं, सज़ा तय होगी — तब न पुल ढहेगा, न सड़क खून से रंगेगी। बदलाव भाषणों से नहीं, इरादों और व्यवहार से आता है। और जब तक व्यवस्था यह नहीं समझती कि जनता उसकी ‘प्रजा’ नहीं, बल्कि साझेदार और अधिकार-धारी है — तब तक यह देश विकास के वादों के बीच, असुरक्षा के अंधेरे में भटकता रहेगा।
इस देश की सबसे बड़ी ज़रूरत अब विकास नहीं, इंसानियत की बहाली है। क्योंकि जब व्यवस्था बेदर्द हो जाती है, तो कानून बहरा पड़ जाता है और न्याय अपनी आँखों पर नहीं, आत्मा पर पट्टी बाँध लेता है। हमें यह समझना होगा कि हर दुर्घटना, हर हादसा सिर्फ़ एक खबर नहीं — एक चेतावनी है, एक सबक है। लेकिन अफ़सोस, हम हर सबक को उतनी ही जल्दी भूल जाते हैं, जितनी जल्दी अगली त्रासदी दस्तक देती है। जब तक हम सीखने के बजाय सहने की आदत नहीं छोड़ते, तब तक कोई भी हादसा आख़िरी नहीं होगा।
हर सांस अब असुरक्षा के साये में चल रही है — सड़कों पर, पुलों पर, भीड़ में और अकेलेपन में। डर अब हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है। अगर हमने अब भी अपनी संवेदनाएँ नहीं जगाईं, अगर हमने जवाबदेही की मांग नहीं की, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें हमारे मौन और उदासीनता के लिए कभी माफ़ नहीं करेंगी। देश तभी सुरक्षित होगा, जब हर नागरिक की जान, हर बच्चे की मुस्कान और हर पुल की नींव ईमानदारी से जुड़ी होगी। वरना हादसे बस तारीख़ें बदलते रहेंगे — और व्यवस्था हर बार वही पुराना वाक्य दोहराएगी: “जांच जारी है।”
प्रो. आरके जैन “अरिजीत