भारत में सड़क माँगोगे तो गड्ढे मिलेंगे, तारीख माँगो नेताजी मिलेंगे

By :  Newshand
Update: 2025-07-13 12:14 GMT

सड़क माँगोगे तो गड्ढे मिलेंगे, तारीख माँगो नेताजी मिलेंगे

सड़क छोड़ो, तारीख दो – नेताजी का स्मार्ट सेवा-संधान

सड़क(ROAD) बनाना? अरे भैया, ये तो वैसा ही सपना है जैसे ऊँट को झूले पर झुलाना। टेंडर की टकटकी, बजट की बकबक, ठेकेदार की ठिठोली, अफसरों की आँख-मिचौली—सब मिलकर सड़क का ऐसा भट्ठा बिठाते हैं कि बनने से पहले ही उसके भाग्य में गड्ढे आरक्षित हो जाते हैं। ऊपर से बारिश की रिमझिम तो जैसे ठहाका मारती है—“चलो भई, जितनी मिट्टी लगाई थी, सब बहा ले चलूँ!” लेकिन असली तमाशा तो तब शुरू होता है, जब एक गर्भवती औरत सड़क की गुहार लगाती है—उसके लिए ये रास्ता नहीं, जिन्दगी-मौत की बाज़ी है। और नेताजी का जवाब सुनिए—“ डिलीवरी की डेट बताओ, हम एक हफ्ते पहले उठवा लेंगे!” वाह नेताजी, ये क्या गजब का जुगाड़ निकाला है! सड़क बना दी तो गड्ढे (potholes)पनपेंगे, गड्ढों की शिकायतें बरसेंगी, अखबार में फोटो छपेगा, ट्विटर पर ट्रेंड होगा—तो ये सब सिरदर्द क्यों मोल लें? तारीख का तड़का लगाओ, गाड़ी का ‘ड्रामा’ दिखाओ, और वाहवाही की मलाई चाट लो। ये है नेताजी का धांसू दिमाग—न सड़क की झंझट, न गड्ढे, न बजट की फाँसी, बस ‘तारीख बताओ’ की तुरुप चाल और जनता का जोकरखाना हर बार हाउसफुल।

नेताजी का ये जवाब तो सियासी नौटंकी के वर्ल्ड कप में सीधा हैट्रिक मारने जैसा है। सड़क बनाना? अरे भाई, वो तो बेकार का बखेड़ा है। सड़क बनी तो गड्ढे होंगे, गड्ढे होंगे तो जनता यूँ चीखेंगी, और फिर नेताजी को सफाई देनी पड़ेगी कि गड्ढे कैसे आए। तो क्यों न इस सारे नाटक से पिंड छुड़ाया जाए? नेताजी ने तो गजब का गुर बता दिया—सड़क की मांग को तारीख में टरकाओ, और जिम्मेदारी को धुएँ में उड़ा दो। जनता पूछे—“सड़क कब बनेगी?” नेताजी बोलें—“पहले डिलीवरी की तारीख बताओ, गाड़ी भेज देंगे।” वाह! गजब की लोकतांत्रिक ‘होम डिलीवरी’ सर्विस। सड़क बनाओगे तो गड्ढे पैदा होंगे, शिकायतें जन्म लेंगी, अखबार में फोटू छपेगा, विपक्ष हल्ला मचाएगा। इससे कहीं आसान है ये सियासी तमाशा—एक फोन उठाओ, चार चमचे तैनात करो, और तारीख का ड्रामा रच दो। नेताजी, आप तो सियासत के ब्लॉकबस्टर हीरो निकले—एक डायलॉग, और जनता खड़े होकर ताली बजाए, ठेकेदार को बोनस मिले, और आप अगले चुनाव के पोस्टर पर मुस्कराते रहो।

हमारे देश में सड़कें तो वैसे भी सियासी तमाशे का टेंट हैं। हर चुनाव में सड़कें चमकती हैं—पोस्टरों पर, प्रचार में, और नेताओं के झूठे झांसे में। लेकिन हकीकत? कीचड़ का कचरा, गड्ढों का गाना, और धूल का धमाल। और जब कोई गर्भवती महिला सड़क मांगे, जिसके लिए ये रास्ता अस्पताल तक की जिंदगी का सवाल है, तो नेताजी का जवाब है, “तारीख बता!” अरे, सड़क बनाकर गड्ढों की गालियां क्यों सुनें? गड्ढे तो हमारे रास्तों का रुतबा हैं, और शिकायतें तो जनता का रोज़ की जुगाली। नेताजी ने तो एक तीर से सारी सियासत साध ली—सड़क की बात टालो, तारीख पर आओ, और गाड़ी से गदगद कर दो। ये है असली सियासी सलामी—न सड़क बने, न गड्ढे हों, न जनता खुश, न नेताजी परेशान। सब कुछ वही का वही, बस तारीख बदलती रहे और नेताजी की वाहवाही का तांबा चमकता रहे!

नेताजी का बयान तो सियासी कॉमेडी का ब्लॉकबस्टर ट्रेलर है, जो समस्याओं को हल करने की बजाय उन्हें हंसी का ओवरडोज़ दे देता है! सड़क न होना? अरे, वो तो बस ट्रेलर का टीज़र है! जनता को चाहिए असली मसाला—सियासी सर्कस का तमाशा, और नेताजी ने रंग-बिरंगा रायता फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सड़क बनाओ तो गड्ढे, गड्ढों की शिकायत, तो फिर ड्रामे का क्या फायदा? बस तारीख पूछो, गाड़ी भेजो, और जनता को हंसी के ठहाकों में डुबो दो! ये तो वैसा ही है जैसे कोई भूखा रोटी मांगे, और नेताजी कहें, “टाइम बता, हम व्यवस्था कर भिजवा देंगे!” नेताजी का ये फंडा सियासी गुरुकुल का पीएचडी लेवल का मंत्र है—समस्या कितनी भी गहरी हो, एक तारीख पूछ लो, और पूरी सियासत को चुटकियों में चटपटा कर दो!

अरे वाह, नेताजी ने तो इस बयान से पुरुषवादी सोच का ऐसा झकाझक झंडा फहराया कि महिलाओं की तकलीफ भी मसखरी का मसाला बन गई! एक गर्भवती महिला की गुहार को तारीख के तमाशे में टरकाना—ये तो सियासी जादूगरी का ऑस्कर लेवल का करतब है! सड़क बनाओ तो गड्ढे, गड्ढों से बचने का सबसे जबरदस्त फंडा? सड़क को ही भूल जाओ, भई! तारीख मांगो, गाड़ी भेजो, और दिखाओ कि सियासत का दिल कितना “संवेदनशील” है! नेताजी ने तो गजब का गुर सिखा दिया—सड़क बनाने की मेहनत से तो सौ गुना आसान है एक तारीख पूछ लेना। न सड़क बने, न गड्ढे हों, न कोई सवाल उठे—बस एक चटपटा जवाब फेंको, और सियासी सर्कस को सुपरहिट कर दो!

तो अब क्या करें? नेताजी की इस सियासी जादूगरी पर तालियां ठोकें, या उनके इस धांसू फंडे को सोने के फ्रेम में जड़वाकर दीवार पर टांग लें? सड़क बनाओ तो गड्ढे, गड्ढों की शिकायत, तो फिर ये सड़क-वड़क का झंझट ही क्यों पालें? नेताजी ने तो गजब का शॉर्टकट निकाला—तारीख मांगो, गाड़ी भेजो, और सियासत को चांद-तारों तक चमकाओ! वैसे भी, जनता की समस्याएं तो जन्मजात मेहमान हैं—कीचड़ में लोटो, गड्ढों में गोते लगाओ, और सियासत के सर्कस का टिकट कटवाओ! नेताजी का ये बयान तो बस एक मसालेदार ब्लॉकबस्टर का ट्रेलर है—सड़क? वो तो बनने से रही! गड्ढे? अरे, वो तो बोनस में मिलेंगे! और शिकायतें? भई, वो तो जनता का जन्मसिद्ध हक है, वो तो यूं ही चलती रहेंगी!

प्रो. आरके जैन “अरिजीत”

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