दाल कितनी, तेल कैसा—क्यों न हो साफ़ हिसाब?

By :  Newshand
Update: 2025-08-03 03:54 GMT

ढाबे से फाइव स्टार तक: भरोसे की भूख अधूरी है

दाल कितनी, तेल कैसा—क्यों न हो साफ़ हिसाब?

समोसे से संसद तक: उपभोक्ता अधिकारों की भूख

चाहे आप ढाबे की साधारण बेंच पर बैठें या फाइव स्टार होटल की कुर्सी पर, एक बात स्पष्ट है: थाली में क्या परोसा जाएगा, इसकी न गारंटी है, न स्पष्टता। मेन्यू में कीमत तो लिखी होती है, लेकिन न मात्रा का पता चलता है, न खाना बनाने के तरीके का। दाल मंगवाइए, तो क्या मिलेगा—दाल या पानी? पनीर ऑर्डर करें, तो पनीर आएगा या सिर्फ उसका स्वाद? यह सब रसोइए के मूड और रेस्तरां की नीति पर निर्भर करता है। समोसा कभी इतना छोटा कि एक निवाले में खत्म, तो दाल की कटोरी की कीमत 100 से 500 रुपये तक—यह सेवा या गुणवत्ता का सवाल नहीं, बल्कि ग्राहक के साथ ईमानदारी की कमी है। मेहनत का पैसा खर्च करने वाला व्यक्ति पौष्टिक भोजन की उम्मीद करता है, मगर उसे अनिश्चितता मिलती है। यह उपभोक्ता अधिकारों का उल्लंघन है, जिसे अब नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।

यह सिर्फ़ खाने की थाली की बात नहीं, बल्कि हमारे अधिकारों, स्वास्थ्य और विश्वास की जंग है। भाजपा सांसद रवि किशन ने संसद(Parliament canteen) में इस ज़मीनी सच्चाई को बुलंद आवाज़ दी। उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को नई राह दिखाई, कई क्रांतिकारी बदलाव किए, लेकिन ढाबों और होटलों में भोजन की मात्रा, गुणवत्ता और कीमत का कोई मानक आज भी नहीं है।” यह बात उस हर शख़्स के दिल की पुकार है, जो कम खाने, घटिया तेल या मनमाने दामों की शिकायत लेकर चुपचाप उठ गया। आज आप खाना माँगते हैं, लेकिन दाल की कटोरी का आकार आपके भाग्य और दुकानदार की मर्ज़ी पर टिका है।

यह मसला सिर्फ़ भावनाओं का नहीं, बल्कि उपभोक्ता अधिकारों और पारदर्शिता का है। बाज़ार से दूध का पैकेट खरीदें, तो उस पर वज़न, सामग्री और तारीख़ साफ़ लिखी होती है। मगर 400 रुपये की शाही पनीर में कितना पनीर, कितनी ग्रेवी, और कौन सा तेल—यह सब रहस्य बना रहता है। एफएसएसएआई के 2022 सर्वे ने खुलासा किया कि 40% से ज़्यादा रेस्तरां और ढाबे बार-बार इस्तेमाल किया हुआ तेल प्रयोग करते हैं, जो दिल की बीमारियों और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों को न्योता देता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी है कि ऐसा तेल ट्रांस फैट्स बढ़ाता है, फिर भी मेन्यू पर यह बताना अनिवार्य नहीं कि खाना शुद्ध घी में पका या सस्ते वनस्पति तेल में। रवि किशन का सुझाव—मेन्यू में तेल और सामग्री की जानकारी अनिवार्य हो—हर ग्राहक के स्वास्थ्य, सम्मान और हक़ की रक्षा की दिशा में एक सशक्त कदम है।

बात यहीं खत्म नहीं होती। भोजन की बर्बादी एक गंभीर संकट है। संयुक्त राष्ट्र की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल 68.7 मिलियन टन भोजन बर्बाद होता है, जिसमें रेस्तरां और ढाबों की बड़ी भूमिका है। इसका प्रमुख कारण है ग्राहकों की अनजानगी—मेन्यू में मात्रा का उल्लेख न होने से वे या तो कम खाना माँगते हैं या ज्यादा, जिससे आधा खाना प्लेट में छूट जाता है। यदि मेन्यू में हर डिश की मात्रा—जैसे 200 मिली दाल या 100 ग्राम सब्जी—स्पष्ट हो, तो ग्राहक सोच-समझकर ऑर्डर करेगा, और बर्बादी कम होगी।

क्या सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए? निश्चित रूप से, लेकिन विवेकपूर्ण ढंग से। भारत जैसे विविध देश में, जहाँ लद्दाख के ढाबे और चेन्नई के रेस्तरां की लागत व संस्कृति भिन्न है, एकसमान नियम लागू करना चुनौतीपूर्ण है। फिर भी, कुछ आधारभूत कदम उठाए जा सकते हैं—मेन्यू में मात्रा और सामग्री का उल्लेख अनिवार्य करना, एफएसएसएआई द्वारा तेल के पुन: उपयोग पर कड़ाई, और स्थानीय ज़रूरतों के अनुरूप लचीलापन। यह कोई व्यापार-विरोधी कदम नहीं, बल्कि व्यवसाय को पारदर्शिता और विश्वसनीयता की ओर ले जाने की पहल होगी। स्टेटिस्टा के 2023 के सर्वे के अनुसार, 78% भारतीय ग्राहक पारदर्शी रेस्तरां को चुनते हैं, और 65% वहाँ बार-बार लौटते हैं जहाँ गुणवत्ता और मात्रा स्पष्ट होती है।

रवि किशन ने जो बात उठाई, वह सिर्फ़ एक समोसे की शिकायत नहीं, बल्कि उस पूरे सिस्टम पर तीखा व्यंग्य है जो ग्राहक के भरोसे को ठगता है। यह हर उस इंसान की पुकार है जो अपनी मेहनत की कमाई से एक सम्मानजनक भोजन चाहता है। यह समय है कि सरकार इस मसले को गंभीरता से ले और ऐसी नीति बनाए जो हर थाली में स्वाद के साथ भरोसा भी परोसे। ताकि अगली बार जब आप ढाबे पर बैठें, तो समोसे के आकार पर सवाल न उठे, बल्कि आप मुस्कुराकर कहें - वाह, दाम और खाना एकदम सटीक, क्योंकि खाने में अगर स्वाद के साथ विश्वास भी हो, तो वही सच्चा संतोष है।

रवि किशन की शिकायत सिर्फ़ एक समोसे की नहीं, बल्कि उस पूरे तंत्र पर करारा प्रहार है जो ग्राहक के भरोसे को चूर करता है। यह हर उस मेहनती इंसान की आवाज़ है जो अपनी कमाई से एक ईमानदार और स्वादिष्ट भोजन की उम्मीद रखता है। अब वक्त है कि सरकार इस मुद्दे को गंभीरता से ले और ऐसी नीति बनाए जो हर थाली में स्वाद के साथ-साथ विश्वास भी परोसे। ताकि अगली बार जब आप किसी ढाबे पर बैठें, तो समोसे के आकार पर सवाल न उठे, बल्कि आप मुस्कुराते हुए कहें - क्या बात, दाम और खाना बिल्कुल दुरुस्त!, क्योंकि खाने में स्वाद के साथ भरोसा हो, तभी मिलता है सच्चा संतोष।

प्रो. आरके जैन “अरिजीत

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