बेटी के शव पर सौदेबाजी —भारत में इंसान नहीं राक्षस बसते हैं

By :  Newshand
Update: 2025-11-01 03:14 GMT

बेटी के शव पर सौदे—यह किस सभ्यता का उत्सव है?

बेटी की अर्थी नहीं, व्यवस्था की लाश उठी थी

जहां मातम पर मोलभाव होता है, वहां इंसान नहीं राक्षस बसते हैं

जब इंसानियत की अंतिम सांस भी दम तोड़ देती है, तो रिश्वतखोरी महज अपराध नहीं रह जाती—वह एक भयानक उत्सव बन जाती है, जहां मौत खुद मुनाफे की दुकान पर नाचने लगती है। बेंगलुरु की हृदयविदारक घटना कोई साधारण खबर नहीं, बल्कि हमारे समाज की आत्मा पर चस्पा वह काला धब्बा है, जो सदियों की धुलाई से भी नहीं मिटेगा। एक पिता की गोद में उसकी 34 वर्षीय बेटी की ठंडी लाश पड़ी है—उसके आंसू नदियां बनकर बह रहे हैं, गला दर्द से फट रहा है, लेकिन चारों ओर संवेदना की एक बूंद तक नहीं; सिर्फ ठंडी, निर्लज्ज सौदेबाजी की फुसफुसाहटें गूंज रही हैं। बेटी की सांसें थम चुकी हैं, मगर सिस्टम का लालच अभी भी जीवंत है—जैसे कोई राक्षस मातम के बीच भोज पर टूट पड़ा हो। यह दृश्य किसी हॉरर फिल्म का नहीं, बल्कि भारत की उस कड़वी हकीकत का क्रूर आईना है, जिसे देखकर खुद ईश्वर भी शर्म से सिर झुका लें। शर्म की सभी सीमाएं लांघ चुकी हैं—हमारा समाज अब इंसान नहीं, एक सांस लेती लाश बन चुका है, जहां हर धड़कन रिश्वत की कीमत पर खरीदी जाती है।





कर्नाटक की चमचमाती राजधानी बेंगलुरु—जिसे दुनिया ‘सिलिकॉन वैली ऑफ इंडिया’ कहकर गर्व करती है—वहां रहने वाले भारत पेट्रोलियम के रिटायर्ड अफसर शिवकुमार जी की जिंदगी एक पल में राख हो गई। उनकी इकलौती बेटी को अचानक ब्रेन हेमरेज ने जकड़ लिया; समय से लड़ते हुए अस्पताल पहुंचे, लेकिन मौत ने उसे छीन लिया। पिता का कलेजा फट गया, जैसे कोई आग की लपटें उसकी छाती में धधक रही हों। मगर असली नरक तो मृत्यु के बाद खुला, जब सिस्टम ने इंसानियत को कुचलकर रख दिया। लाश घर लाने के लिए एम्बुलेंस ड्राइवर ने पांच हजार लिए—मानो शव कोई माल हो, जिसकी डिलीवरी चार्ज लगता हो। पोस्टमार्टम के नाम पर दस हजार, रिपोर्ट के लिए पुलिस ने पांच हजार और वसूले; न्याय की कीमत नोटों की गड्डियों में नापी जा रही थी। नगरपालिका के क्लर्क ने मृत्यु प्रमाणपत्र के बदले दो हजार की “स्पेशल फीस” मांगी, जैसे दस्तावेज़ नहीं, कोई प्रीमियम सर्विस हो। हर मोड़ पर, हर चेहरे पर सिर्फ लालच की चमक—आंसू पोछने की बजाय जेब टटोलने को कहा गया। पिता की गुहार को सौदेबाजी में बदल दिया गया। यह क्या है? मौत का थोक बाजार? जहां दर्द की कीमत भी चुकानी पड़ती है, और इंसानियत मुफ्त में नहीं बिकती?






 



सोचिए, क्या हम इतने नीचे गिर चुके हैं कि मौत भी अब नोट गिनने की मशीन बन गई है? शिवकुमार जैसे ईमानदार पिता—जिन्होंने जीवनभर पसीना बहाकर देश सेवा की—हर कदम पर रिश्वतखोरों की फौज से घिर गए। एम्बुलेंस ड्राइवर शव को तराजू पर तौल रहा था, पुलिस वाला रिपोर्ट की नीलामी कर रहा था, और नगरपालिका का क्लर्क जेब की गहराई नापकर “सेवा शुल्क” तय कर रहा था। बेटी की मौत ने पिता को तोड़ दिया, लेकिन इस सड़ांध भरे तंत्र ने इंसानियत की हत्या कर उसकी लाश को भी लूट लिया।यह किसी एक की निजी विपदा नहीं, पूरे समाज की सड़ती हुई आत्मा की कराह है। हमने सिस्टम को भ्रष्ट किया, और अपना अंतर्मन को जहर से भर लिया। हर दिल में अब करुणा की जगह लालच का कीड़ा कुलबुलाता है; हर हाथ में रिश्वत की बदबू। यही वह भारत है, जहां दिन-रात “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” के ढोल पीटे जाते हैं, मगर बेटी की अर्थी उठाने के लिए भी मोल-भाव होता है। यह दोमुंहापन नहीं, एक घिनौना पाखंड है—जो हमें आईने में अपना काला मुंह दिखाकर थूकता है।





 



रिश्वतखोरी अब कोई छिपा हुआ पाप नहीं रही—यह हमारी रगों में दौड़ता जहर बन चुकी है, जिसे हमने स्वीकार कर लिया है। पहले रिश्वत जिंदा लोगों के काम करवाने के लिए दी जाती थी, लेकिन अब मृतकों के अंतिम संस्कार तक के लिए भी वसूली जाती है। यह समाज की नैतिक दिवालियापन की पराकाष्ठा है। लोग मौत पर रोते नहीं, अवसर तलाशते हैं। और हम, समाज के बाकी लोग? हम चुप रहते हैं, क्योंकि “क्या करें, सिस्टम तो ऐसा ही है।” लेकिन यही चुप्पी हमें अपराधी बनाती है। हर बार जब हम जेब ढीली करके मुंह फेर लेते हैं, हम इंसानियत की लाश पर एक और कफ़न चढ़ाते हैं। हम सब इस कीचड़ के साझीदार हैं—और कीचड़ में डूबकर भी खुद को साफ़ बताते हैं।




शिवकुमार ने जब अपनी व्यथा सोशल मीडिया पर उड़ेली, तो पूरे देश में लोग गुस्से से लाल हो गए, पोस्टें वायरल हुईं, हैशटैग ट्रेंड करने लगे। दुख की लहर दौड़ी, अफसोस की बाढ़ आई। लेकिन सवाल यह है: क्या यह गुस्सा केवल स्क्रीन तक सीमित रहेगा? क्या कुछ दिनों बाद सब भूलकर फिर रोजमर्रा की जिंदगी में लौट आएंगे? नहीं, यह मौका है बदलाव का। हम सब सिस्टम का हिस्सा हैं—एम्बुलेंस चलाने वाला हममें से कोई, रिपोर्ट बनाने वाला हमारा पड़ोसी, प्रमाणपत्र देने वाला हमारा रिश्तेदार। इंसानियत बिक रही है, और खरीदार भी हम ही हैं। हर बार जब हम “चलता है” कहकर आंखें मूंद लेते हैं, हम उस व्यवस्था को ऑक्सीजन देते हैं जो आज एक पिता से उसकी बेटी की मौत पर भी टैक्स वसूलती है। यह सोच हमारी सबसे बड़ी हार है—हमने रिश्वत को सामान्य बना दिया, अब यह हमें असामान्य नहीं लगती।

क्या यही हमारा नया भारत है? हम डिजिटल इंडिया की बात करते हैं, स्मार्ट सिटी की चमक दिखाते हैं, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में दुनिया को पीछे छोड़ने का दावा करते हैं—लेकिन इंसानियत की बुद्धि तो कब की दम तोड़ चुकी है। हमारी तकनीक सुपरफास्ट है, लेकिन संवेदना सुपरकोल्ड। शहरों की ऊंची इमारतें चमकती हैं, लेकिन दिलों में घना अंधेरा पसरा है। कानून की आंखें पट्टी बंधी हैं, व्यवस्था के कान बहरे हो चुके हैं—न्याय की लाश सड़क पर पड़ी सड़ रही है। बेंगलुरु की यह घटना कोई अलग थलग अपराध नहीं, बल्कि एक व्यापक नैतिक पतन की मिसाल है। मौत पर अब आंसू नहीं बहते, रेट कार्ड तैयार होते हैं। लाश पर फूल नहीं चढ़ते, नोटों की मालाएं सजाई जाती हैं। यह वह समाज है जहां दर्द को मौका माना जाता है, और मातम को मुनाफा। बेंगलुरु की यह घटना कोई अलग-थलग अपवाद नहीं, बल्कि पूरे भारत के ग्रामीण गलियारों से लेकर महानगरीय अस्पतालों तक फैले उस भयावह सत्य का आईना है, जहां मौत भी रिश्वत की भेंट चढ़ती है।




अब समय आ गया है कि हम सवाल सिर्फ सरकार से नहीं, खुद से पूछें। क्या हम सच में इतने निर्बल हो चुके हैं कि किसी की त्रासदी में भी लाभ की तलाश करते हैं? क्या हमने इंसानियत को हमेशा के लिए दफना दिया है? अगर हां, तो यह देश अब सभ्यता का केंद्र नहीं, बल्कि एक विशाल बाजार बन चुका है—जहां रिश्ते बिकते हैं, संवेदना नीलाम होती है, और नैतिकता की बोली लगती है। बेंगलुरु की इस घटना ने न केवल शिवकुमार को तोड़ा, बल्कि पूरे समाज का नकाब उतार फेंका। बेटी चली गई, लेकिन अपने साथ हमारी शर्म, हमारी करुणा और हमारी मानवता को भी ले गई। अब सवाल दोषी खोजने का नहीं, बल्कि यह है कि क्या हम अभी भी जीवित हैं—सच्चे इंसान की तरह, या सिर्फ सांस लेती हुई लाशें बनकर घूम रहे हैं? क्योंकि जब इंसानियत मर जाती है, तो समाज जिंदा रहकर भी मृत घोषित हो चुका होता है। यह बदलाव की पुकार है—अब जागो, या हमेशा के लिए सो जाओ।

प्रो. आरके जैन “अरिजीत

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