ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने बदला मध्य पूर्व का समीकरण
गाजा की तबाही और वेस्ट बैंक कब्ज़े के बीच उठी वैश्विक आवाज़
ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने बदला मध्य पूर्व का समीकरण
ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया(Britain, Canada, and Australia) द्वारा 21 सितंबर को फिलिस्तीन को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देना मध्य पूर्व की भू-राजनीति में एक ऐतिहासिक कदम है। यह फैसला गाजा में दो साल से चल रहे विनाशकारी युद्ध, वेस्ट बैंक में गैरकानूनी इस्राइली बस्तियों के विस्तार और विश्व शांति प्रयासों की असफलता के बीच आया है। यह कदम दो-राष्ट्र समाधान को पुनर्जनन देने का प्रयास है, जो इस्राइल और फिलिस्तीन के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नींव रख सकता है। फिर भी, सवाल यह है: क्या यह प्रतीकात्मक कदम जमीन पर बदलाव ला पाएगा, या केवल कूटनीतिक बयानबाजी तक सीमित रहेगा?
यह मान्यता 1917 के बाल्फोर घोषणापत्र की छाया में देखी जानी चाहिए, जब ब्रिटेन ने फिलिस्तीन में यहूदी राष्ट्रीय घर की स्थापना का समर्थन किया था, साथ ही गैर-यहूदी आबादी के अधिकारों की रक्षा का वचन दिया था। एक सदी बाद, उसी ब्रिटेन ने फिलिस्तीन को राष्ट्र का दर्जा दिया, जिसे कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने तुरंत समर्थन दिया। यह जी-7 देशों का साझा कदम है, जो अमेरिका—इस्राइल का सबसे मजबूत सहयोगी—की अनुपस्थिति में और भी महत्वपूर्ण है। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से करीब 75 प्रतिशत पहले ही फिलिस्तीन को मान्यता दे चुके हैं, जिनमें चीन और रूस जैसे सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य शामिल हैं। अब, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के जुड़ने से चार स्थायी सदस्यों का समर्थन मिला है, जो फिलिस्तीन की वैश्विक स्थिति को और मजबूत करता है।
हालांकि, यह मान्यता अभी प्रतीकात्मक है, क्योंकि फिलिस्तीन पूर्ण राष्ट्र नहीं है। इसकी कोई स्पष्ट सीमाएं, स्वतंत्र सेना, या अपनी राजधानी पर नियंत्रण नहीं है। वेस्ट बैंक पर इस्राइली सैन्य कब्जा और गाजा में हमास का प्रभाव इसकी संप्रभुता को सीमित करता है। फिर भी, यह कदम नैतिक और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली है। यह संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन की पर्यवेक्षक भूमिका को मजबूत करेगा, राजनयिक कार्यालयों की संख्या बढ़ाएगा, और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर फिलिस्तीनी आवाज को बल देगा। खेल, सांस्कृतिक और वैश्विक आयोजनों में इसकी भागीदारी को और वैधता मिलेगी। सबसे बड़ा प्रभाव इस्राइल पर पड़ेगा, जो अब अंतरराष्ट्रीय अलगाव के कगार पर है।
गाजा में 7 अक्टूबर 2023 के हमास हमले के बाद शुरू हुआ इस्राइली सैन्य अभियान अब तक 65,000 से अधिक फिलिस्तीनियों की जान ले चुका है, जिनमें ज्यादातर आम नागरिक हैं। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट बताती है कि गाजा का 90 प्रतिशत हिस्सा विस्थापित है, भुखमरी और बीमारियां फैल रही हैं, और बुनियादी ढांचा पूरी तरह नष्ट हो चुका है। वेस्ट बैंक में इस्राइली बस्तियों का विस्तार—जो अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत गैरकानूनी है—तेजी से बढ़ रहा है। ई-1 परियोजना जैसी योजनाएं वेस्ट बैंक को दो हिस्सों में बांट सकती हैं, जिससे फिलिस्तीनी राज्य की भौगोलिक संरचना खतरे में है। इस पृष्ठभूमि में, यह मान्यता इस्राइली नीतियों पर वैश्विक असंतोष का प्रतीक है। यह कदम गाजा में तत्काल युद्धविराम और मानवीय सहायता की मांग को मजबूत करता है, साथ ही दो-राष्ट्र समाधान की दिशा में नया दबाव बनाता है।
इस्राइल ने इस मान्यता को कड़े शब्दों में खारिज करते हुए इसे "हमास के आतंक को पुरस्कार" करार दिया। उसका तर्क है कि यह कदम हमास को सशक्त करता है और बंधकों की रिहाई को और जटिल बनाता है। इस्राइली नेतृत्व ने पहले फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया पर "यहूदी-विरोधी भावनाओं को भड़काने" का आरोप लगाया था, और अब ब्रिटेन व कनाडा भी इस आलोचना के निशाने पर हैं। यह प्रतिक्रिया इस्राइल की उस रणनीति को उजागर करती है, जो जॉर्डन नदी के पश्चिम में किसी भी फिलिस्तीनी राज्य की स्थापना को स्वीकार करने से इंकार करती है। वर्तमान में, इस्राइली सरकार वेस्ट बैंक के बड़े हिस्सों को औपचारिक रूप से हड़पने की योजना बना रही है, जिससे दो-राष्ट्र समाधान की संभावनाएं और कमजोर हो रही हैं।
हालांकि, इस्राइल का यह रुख उसे वैश्विक मंच पर और अलग-थलग कर सकता है। फ्रांस, बेल्जियम, लक्जमबर्ग और माल्टा जैसे यूरोपीय देश जल्द ही संयुक्त राष्ट्र में ऐसी ही घोषणाएं कर सकते हैं। यह बदलाव इस्राइल पर गाजा में सैन्य कार्रवाई रोकने और वेस्ट बैंक में बस्तियों के विस्तार को समाप्त करने का दबाव बढ़ाएगा। साथ ही, यह अमेरिका के लिए भी एक चुनौती है, जो अब तक इस्राइल का अटल समर्थक रहा है। अमेरिका ने इस मान्यता को "प्रदर्शनकारी कदम" कहकर आलोचना की है, लेकिन जब उसके जी-7 सहयोगी अलग रास्ता चुन रहे हैं, तो उसे अपनी नीतियों की समीक्षा के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।
यह मान्यता दो-राष्ट्र समाधान को पुनर्जनन दे सकती है, जो 1967 की सीमाओं पर आधारित एक फिलिस्तीनी राज्य की स्थापना की कल्पना करता है, जिसमें पूर्वी यरूशलम राजधानी हो। फिर भी, कई बाधाएं बरकरार हैं। पहली, हमास का पूर्ण निशस्त्रीकरण, जो इस्राइल और पश्चिमी देशों की प्रमुख शर्त है। दूसरी, फिलिस्तीनी प्राधिकरण की अपनी जमीन और लोगों पर सीमित सत्ता, जो इस्राइली कब्जे और आंतरिक राजनीतिक विभाजन से कमजोर है। तीसरी, फिलिस्तीनी क्षेत्रों में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, जिसमें हमास की कोई भूमिका न हो। चौथी, गाजा में तत्काल मानवीय सहायता और पुनर्निर्माण, जो युद्ध और नाकेबंदी के कारण असंभव-सा प्रतीत होता है।
क्षेत्रीय स्तर पर, यह कदम मध्य पूर्व की गतिशीलता को गहराई से प्रभावित करेगा। ईरान-समर्थित समूह जैसे हिजबुल्लाह और यमन के हूती विद्रोही इसे अपनी जीत मान सकते हैं, जिससे क्षेत्रीय तनाव और बढ़ सकता है। सऊदी अरब और फ्रांस द्वारा प्रस्तावित शांति सम्मेलन अब और अधिक महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि यह फिलिस्तीनी मुद्दे को वैश्विक मंच पर केंद्र में लाता है। वैश्विक स्तर पर, यह कदम उन दक्षिणपंथी सरकारों को चुनौती देता है जो मानवाधिकारों को नजरअंदाज करती हैं। साथ ही, यह वैश्विक दक्षिण के देशों को प्रेरित करेगा, जो लंबे समय से फिलिस्तीनी संघर्ष का समर्थन करते रहे हैं।
यह सच है कि यह मान्यता मुख्य रूप से प्रतीकात्मक है। गाजा में भुखमरी, वेस्ट बैंक में कब्जा, और इस्राइली बस्तियों का विस्तार तत्काल नहीं थमेगा। फिर भी, यह कदम एक सशक्त नैतिक और राजनीतिक संदेश देता है: विश्व समुदाय अब इस्राइली नीतियों को मूक सहमति नहीं देगा। यह फिलिस्तीनियों को वैश्विक मंच पर नई ताकत प्रदान करता है और इस्राइल को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करता है। हालांकि, बिना ठोस कदमों—जैसे तत्काल युद्धविराम, बंधकों की रिहाई, नाकेबंदी का अंत, और बस्तियों का ठहराव—यह पहल अधूरी रहेगी। ओस्लो समझौते (1993) और अन्य शांति प्रयासों की असफलता सिखाती है कि विश्वास और कार्यान्वयन के बिना कोई भी कदम फल नहीं ला सकता।
ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया का यह कदम फिलिस्तीनी संघर्ष को वैश्विक केंद्र में लाता है, दो-राष्ट्र समाधान की दिशा में एक नया द्वार खोलता है। यह इस्राइल को अंतरराष्ट्रीय मंच पर और अलग-थलग करता है, साथ ही अमेरिका पर अपनी नीतियों की समीक्षा के लिए दबाव बढ़ाता है। लेकिन इसकी सफलता तभी संभव है, जब इसके साथ जमीनी कार्रवाई हो—गाजा में तत्काल मानवीय सहायता, वेस्ट बैंक में कब्जे का अंत, और फिलिस्तीनी एकता का निर्माण। यह कदम आशा की एक किरण है, लेकिन बिना कार्यान्वयन के यह केवल शब्दों का खेल बनकर रह सकता है। मध्य पूर्व में शांति अब भी एक दूरस्थ सपना है, पर यह घोषणा उस सपने को हकीकत में बदलने की दिशा में एक साहसी और निर्णायक कदम है।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत