भारत में नज़र आती आज़ादी, असलियत में छिपी हुई कैद
नज़र आती आज़ादी, छिपी हुई कैद
कांच की दीवारें: अवसर दिखातीं, पर छूने नहीं देतीं
कांच की दीवारें(Glass walls), यह शब्द अपने आप में एक तीखी विडंबना छिपाए हुए है। सामने सब कुछ साफ दिखता है—सपने, अवसर, खुशियाँ—पर जैसे ही हाथ बढ़ाओ, एक ठंडी, कठोर दीवार रास्ता रोक लेती है। आधुनिक जीवन की यह पारदर्शी कैद हमें एक विचित्र भंवर में फँसाती है। हम ऐसे युग में जीते हैं, जहाँ सब कुछ खुला और पारदर्शी लगता है, फिर भी अदृश्य बाधाएँ हर कदम पर हमें जकड़ लेती हैं। चाहे वह कॉर्पोरेट दफ्तरों की चमकती कांच की दीवारें हों, समाज की झूठी समानता का पाखंड हो, या रिश्तों की सतही नज़दीकियाँ—ये सभी हमें यह भ्रम देते हैं कि हम आज़ाद हैं, जबकि हकीकत में हम इन पारदर्शी दीवारों के पीछे बंधे हैं।(Undeclared censorship in India)
आधुनिक कॉर्पोरेट संस्कृति में कांच की दीवारें एक शक्तिशाली प्रतीक बन चुकी हैं। चमचमाते ग्लास केबिन, पारदर्शी मीटिंग रूम और ओपन-प्लान ऑफिस यह दावा करते हैं कि यहाँ सब कुछ खुला और समावेशी है। मगर यह पारदर्शिता कितनी सच्ची है? कर्मचारी एक-दूसरे को देखते हैं, बॉस की हर हरकत पर नज़र रखते हैं, लेकिन क्या सचमुच कुछ बदलता है? निर्णय, तरक्की और नीतियाँ अब भी चंद लोगों के कब्जे में रहती हैं। कांच की दीवारें भले ही पारदर्शी हों, वे सत्ता के केंद्र तक पहुँच को अवरुद्ध करती हैं। एक मेहनती मध्यमवर्गीय कर्मचारी दिन-रात खटता है, तरक्की का सपना बुनता है, पर अक्सर उसे कोई न कोई अदृश्य दीवार रोक लेती है—चाहे वह पक्षपात हो, नेटवर्किंग की कमी हो, या ऐसी नीतियाँ जो सिर्फ़ ऊपरी तबके के लिए बनी हों। यह तथाकथित पारदर्शिता दरअसल निगरानी का एक परिष्कृत जाल है, जो कर्मचारी को यह भ्रम देता है कि वह व्यवस्था का हिस्सा है, जबकि वह बाहर ही खड़ा रह जाता है।
डिजिटल युग में समाज एक पारदर्शी मंच सा लगता है। सोशल मीडिया पर हर कोई अपनी ज़िंदगी की चमक बिखेरता है—तस्वीरें, उपलब्धियाँ, खुशियाँ—सब कुछ दुनिया के सामने। यह भ्रम देता है कि हम एक खुले, बराबरी वाले समाज में जी रहे हैं। मगर यह पारदर्शिता केवल सतही है। गहराई में समाज आज भी वर्ग, जाति, धर्म और लिंग की दीवारों से जकड़ा हुआ है। एक गरीब परिवार का बच्चा शिक्षा और नौकरी का सपना देखता है, पर आर्थिक तंगी और सामाजिक भेदभाव की दीवारें उसे कुचल देती हैं। एक महिला कार्यस्थल पर समानता की बात सुनती है, मगर अवसरों की दौड़ में पुरुषों से पीछे छूट जाती है। ये कांच की दीवारें हमें विश्वास दिलाती हैं कि सब कुछ संभव है, मेहनत से हर मंज़िल हासिल हो सकती है। लेकिन जब कोशिशें बार-बार ठोकर खाती हैं, तब जाकर पता चलता है कि अवसरों का वह चमकता संसार हमारे लिए नहीं, बल्कि कुछ खास लोगों के लिए बना है।
आधुनिक रिश्ते “खुलेपन” और “ईमानदारी” का दम भरते हैं। व्हाट्सएप, वीडियो कॉल्स और सोशल मीडिया ने हमें हर पल जोड़ रखा है। मगर क्या यह नज़दीकी सच्ची है? पति-पत्नी, दोस्त, या परिवार के सदस्य एक-दूसरे की ज़िंदगी के हर अपडेट से वाकिफ़ रहते हैं, पर भावनाओं की गहराई तक पहुँचना जैसे नामुमकिन हो गया है। हम पोस्ट लाइक करते हैं, स्टेटस पर कमेंट करते हैं, लेकिन मन की असल बातें—डर, इच्छाएँ, सपने—अनकही रह जाती हैं। यह सतही संवाद एक कांच की दीवार खड़ी करता है, जो हमें एक-दूसरे को देखने तो देता है, पर सच्ची आत्मीयता से दूर रखता है। इस पारदर्शी दिखावे में हम अपनों के बीच होते हुए भी अकेलेपन की कैद में जीते हैं।
कांच की दीवारों का सबसे खतरनाक रूप उनकी अदृश्यता है। अगर ये पत्थर की होतीं, तो हम उन्हें तोड़ने की जिद पकड़ लेते। मगर ये पारदर्शी दीवारें हमें छलती हैं, यह भ्रम देती हैं कि आज़ादी हमारी मुट्ठी में है, कि सब कुछ सामने है। यह भ्रम हमें लड़ने से रोकता है। हम सोचते हैं कि मेहनत से प्रमोशन, खुलकर बोलने से स्वीकृति, और अपडेट्स शेयर करने से रिश्तों की गर्माहट मिल जाएगी। लेकिन हकीकत में ये दीवारें हमें जकड़ लेती हैं, हमें वहीँ ठिठका देती हैं। यह पारदर्शी कैद आधुनिक जीवन की सबसे मार्मिक त्रासदी है।
इस कैद से निकलने की पहली सीढ़ी है इन दीवारों को पहचानना। जब तक हम इस भ्रम को नहीं तोड़ेंगे, बदलाव की सोच भी नहीं जागेगी। कॉर्पोरेट जगत में पारदर्शिता का मतलब चमकते ग्लास केबिन नहीं, बल्कि सच्ची समानता और सहभागिता है। कर्मचारियों को निर्णयों में शामिल करना, पक्षपात को जड़ से उखाड़ना और अवसरों को सबके लिए खोलना होगा। समाज में दिखावटी समानता को छोड़कर वास्तविक न्याय की ओर बढ़ना होगा—जाति, वर्ग और लिंग की दीवारों को ढहाकर, हर व्यक्ति को उसकी योग्यता का हक देना होगा। रिश्तों में सतही संवाद की जगह गहरे, ईमानदार संवाद को अपनाना होगा। अपनी खुशियों के साथ-साथ कमज़ोरियों और डर को साझा करने का साहस जुटाना होगा। तभी हम इन कांच की दीवारों को चकनाचूर कर सच्ची आज़ादी पा सकेंगे।
इन कांच की दीवारों को तोड़ना कोई आसान जंग नहीं। इसके लिए साहस चाहिए—सच को बेबाकी से कहने का साहस, अन्याय के खिलाफ़ डटकर खड़े होने का साहस, और अपने दिल की गहराइयों को खोलने का साहस। बिना इस हिम्मत के हम इन पारदर्शी दीवारों की कैद में जकड़े रहेंगे—सपनों को निहारते, अवसरों को छूने की चाह में तड़पते, और अपनों को पास देखकर भी उनसे कोसों दूर।
आधुनिक जीवन की यह कटु विडंबना हमें झकझोरती है—क्या हम वाकई आज़ाद हैं? या हम एक ऐसी कैद में जी रहे हैं, जो इतनी पारदर्शी है कि उसका अहसास ही नहीं होता? अब समय है कि हम इन कांच की दीवारों को पहचानें, उनके छल को उजागर करें, और उन्हें चकनाचूर करने की हिम्मत जुटाएँ। सच्ची आज़ादी तभी मिलेगी, जब हम इन दीवारों के पार न केवल देखें, बल्कि वहाँ तक पहुँचें। तभी हम एक ऐसा जीवन जी सकेंगे, जहाँ सपने, अवसर और रिश्ते महज भ्रम नहीं, बल्कि हमारी हकीकत बनें।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत